श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पञ्चम अध्याय
संबंध- अब भगवान कर्मयोगी के लक्षणों का वर्णन करते हैं। योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेंद्रियः । व्याख्या- ‘जितेंद्रियः’- इंद्रियाँ वश में होने का तात्पर्य है- इंद्रियों का राग द्वेष से रहित होना। राग द्वेष से रहित होने पर इंद्रियों में मन को विचलित करने की शक्ति नहीं रहती।[1] साधक उनको अपने मन के अनुकूल चाहे जहाँ लगा सकता है। कर्मयोग के साधक के लिये इंद्रियों का वश में होना आवश्यक है। इसीलिये भगवान कर्मयोग के प्रकरण में इंद्रियों को वश में करने की बात विशेष रूप से कहते हैं; जैसे- ‘यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्य’[2]; ‘तस्मामिन्द्रियाण्यादौ नियम्य’।[3] कर्मयोगी का कर्मों के साथ अधिक संबंध रहता है; इसलिये इंद्रियाँ वश में न होने से उसके विचलित होने की संभावना रहती है। कर्मयोग के साधन में दूसरों के हित के लिये सेवारूप से कर्तव्य कर्म करना आवश्यक है, जिसके लिये इंद्रियों का वश में होना बहुत जरूरी है। इंद्रियाँ वश में हुए बिना कर्मयोग का साधन होना कठिन है। ‘विशुद्धात्मा’- अंतःकरण की मलिनता में हेतु है- सांसारिक पदार्थों का महत्त्व। जहाँ पदार्थों का महत्त्व रहता है, वहीं उनकी कामनाएँ रहती हैं। साधक निष्काम तभी होता है, जब उसके अंतःकरण में सांसारिक पदार्थों का महत्त्व नहीं रहता। जब तक पदार्थों का महत्त्व है, तब तक वह निष्काम नहीं हो सकता। एक परमात्मप्राप्ति का दृढ़ उद्देश्य होने से अंतःकरण की जितनी जल्दी और जैसी शुद्धि होती है, उतनी जल्दी और वैसी शुद्धि दूसरे किसी अनुष्ठान से नहीं होती। इसलिये कर्मयोग में एक उद्देश्य होने की जितनी महिमा है, उतनी किसी की नहीं। ‘विजितात्मा’- कर्मयोग में शरीर के सुख आराम का त्याग करने की बड़ी भारी आवश्यकता है। अगर शरीर से आलस्य प्रमाद होगा, तो कर्मयोग का अनुष्ठान नहीं हो पायेगा। अतः यहाँ भगवान ने शरीर को वश में करने की बात कही है। ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’- कर्मयोगी को संपूर्ण प्राणियों के साथ अपनी एकता का अनुभव हो जाता है।[4] जैसे शरीर के किसी एक अंग में चोट लगने से दूसरा अंग उसकी सेवा करने के लिये सहजभाव से, किसी अभिमान के बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः लग जाता है, ऐसे ही कर्मयोगी के द्वारा दूसरों को सुख पहुँचाने की चेष्टा सहजभाव से, किसी अभिमान या कामना के बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः होती है। वह सेवा करने के लिये किसी भी प्राणी को अपने से अलग नहीं समझता, सबको अपने ही अंग मानता है। जैसे अपने शरीर में भिन्न-भिन्न अवयवों से भिन्न-भिन्न व्यवहार होने पर भी सब अवयवों के साथ अपनापन समान[5] रहता है, ऐसे ही कर्मयोगी के द्वारा मर्यादा के अनुसार संसार में यथायोग्य भिन्न-भिन्न व्यवहार होने पर भी सबके साथ अपनापन समान रहता है। अपना राग मिटाने के लिये ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ होना अर्थात सब प्राणियों के साथ अपनी एकता मानना बहुत आवश्यक है। कर्मयोगी का स्वभाव है- उदारता। सर्वभूतात्मभूतात्मा हुए बिना उदारता नहीं आती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः। न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेंद्रियः ।। (मनुस्मृति 2।98)
‘जो पुरुष सुनकर, छूकर, देखकर खाकर और सूंघकर न तो प्रसन्न होता है और न खिन्न होता है, उसे ही जितेंद्रिय जानना चाहिये।’ - ↑ 3।7
- ↑ 3।41
- ↑ चाहे अपने शरीर से असंग हो जायँ, चाहे अपने शरीर जैसे संपूर्ण प्राणियों के शरीर से एकता मान लें- दोनों का परिणाम एक ही होगा। ज्ञानयोगी अपने शरीर से असंग होता है और कर्मयोगी सब शरीरों के साथ अपने शरीर की एकता मानता है। एकता मानने से वह उदार हो जाता है।
- ↑ एक ही
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