श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् । अर्थ- श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी सामर्थ्य से यह अत्यंत श्रेष्ठ, तेजोमय, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दिखाया है, जिसको तुम्हारे सिवाय पहले किसी ने नहीं देखा है। व्याख्या- ‘मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं दर्शितम्’- हे अर्जुन! तू बार-बार यह कह रहा है कि आप प्रसन्न हो जाओ[1], तो प्यारे भैया! मैंने जो यह विराटरूप तुझे दिखाया है, उसमें विकरालरूप को देखकर तू भयभीत हो गया है, पर यह विकाराल रूप मैंने क्रोध में आकर या तुझे भयभीत करने के लिए नहीं दिखाया है। मैंने तो अपनी प्रसन्नता से ही यह विराटरूप तुझे दिखाया है। इसमें तेरी कोई योग्यता, पात्रता अथवा भक्ति कारण नहीं है। तुमने तो पहले केवल विभूति और योग को ही पूछा था। विभूति और योग का वर्णन करके मैंने अंत में कहा था कि तुझे जहाँ- कहीं जो कुछ विलक्षमता दिखे, वहाँ-वहाँ मेरी ही विभूति समझ। इस प्रकार तुम्हारे प्रश्न का उत्तर सम्यक प्रकार से मैंने दे ही दिया था। परंतु वहाँ मैंने (‘अथवा’ पद से) अपनी ही तरफ से यह बात कही कि तुझे बहुत जानने से क्या मतलब? देखने, सुनने, समझने में जो कुछ संसार आता है, उस संपूर्ण संसार को मैंने अपने किसी अंश में धारण करके स्थित हूँ। दूसरा भाव यह है कि तुझे मेरी विभूति और योगशक्ति को जानने की क्या जरूरत है? क्योंकि सब विभूतियाँ मेरी योगशक्ति के आश्रित हैं और उस योगशक्ति का आश्रय मैं स्वयं तेरे सामने बैठा हूँ। यह बात तो मैंने विशेष कृपा करके ही कही थी। इस बात को लेकर ही तेरी विश्वरूप-दर्शन की इच्छा हुई और मैंने दिव्यचक्षु देकर तुझे विश्वरूप दिखाया। यह तो मेरी कोरी प्रसन्नता ही प्रसन्नता है। तात्पर्य है कि इस विश्वरूप को दिखाने में तेरी कृपा के सिवाय दूसरा कोई हेतु नहीं है। तेरी देखने की इच्छा तो निमित्तमात्र है। ‘आत्मयोगात्’- इस विराटरूप को दिखाने में मैने किसी की सहायता नहीं ली, प्रत्युत केवल अपनी सामर्थ्य से ही तेरे को यह रूप दिखाया है। ‘परम्’- मेरा यह विराटरूप अत्यंत श्रेष्ठ है। ‘तेजमयम्’- यह मेरा विश्वरूप अत्यंत तेजोमय है। इसलिए दिव्यदृष्टि मिलने पर तुमने इस रूप को दुर्निरीक्ष्य कहा है।[2] ‘विश्वम्’- इस रूप को तुमने स्वयं विश्वरूप, विश्वमूर्ते आदि नामों से संबोधित किया है। मेरा यह रूप सर्वव्यापी है। ‘अनन्तमाद्यम्’- मेरे इस विश्वरूप का देश, काल आदि की दृष्टि से न तो आदि है और न अंत ही है। यह सबका आदि है और स्वयं अनादि है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11।25, 31, 45
- ↑ गीता 11:17
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