श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय यहाँ ग्यारहवें श्लोक से तीसवें श्लोक तक का जो प्रकरण है, यह विशेषरूप से देही-देह, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, अविनाशी-विनाशी- इन दोनों के विवेक के लिए अर्थात इन दोनों को अलग-अलग बताने के लिए ही है। कारण कि जब तक ‘देही अलग है और देह अलग हैं’- यह विवेक नहीं होगा, तब तक कर्मयोग, ज्ञान योग, भक्तियोग आदि कोई सा भी योग अनुष्ठान में नहीं आयेगा। इतना ही नहीं, स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति के लिए भी देही देह के भेद को समझना आवश्यक है। कारण कि देह से अलग देही न हो, तो देह के मरने पर स्वर्ग कौन जाएगा? अतः जितने भी आस्तिक दार्शनिक हैं, वे चाहे अद्वैतवादी हों, चाहे द्वैतवादी हों; किसी भी मत के क्यों न हों, सभी शरीरी-शरीरी के भेद को मानते ही हैं। यहाँ भगवान इसी भेद को स्पष्ट करना चाहते हैं। इस प्रकरण में भगवान ने जो बात कही हैं, वह प्रायः संपूर्ण मनुष्यों के अनुभव की बात है। जैसे, देह बदलता है और देही नहीं बदलता। अगर यह देही बदलता तो देह के बदलने के कौन जानता? पहले बाल्यावस्था थी, फिर जवानी आयी कभी बीमारी आयी कभी बीमारी चली गयी- इस तरह अवस्थाएँ तो बदलती रहती हैं, पर इन सभी अवस्थाओं को जानने वाला देही वही रहता है। अतः बदलने वाला और न बदलने वाला- ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते। इसका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है। इसलिए भगवान ने इस प्रकरण में आत्मा -अनात्मा, ब्रह्म-जीव, प्रकृति पुरुष जड़-चेतन, माया-अविद्या आदि दार्शनिक शब्दों का प्रयोग नहीं किया है[1]। कारण कि लोगों ने दार्शनिक बातें केवल सीखने के लिए मान रखी है, उन बातों को केवल पढ़ाई का विषय मान रखा है। इसको दृष्टि में रखकर भगवान ने इस प्ररण में दार्शनिक शब्दों का प्रयोग न करके देह-देही, शरीर-शरीरी, असत्-सत्, विनाशी-अविनाशी शब्दों का ही प्रयोग किया है। जो इन दोनों के भेद को ठीक-ठीक जान लेता है, उसको कभी किञ्चिंमात्र भी शोक नहीं हो सकता। जो केवल दार्शनिक बातें सीख लेते हैं, उनका शोक दूर नहीं होता। एक छहों दर्शनों की पढ़ाई करना होता है और एक अनुभव करना होता है। ये दोनों बातें अलग-अलग हैं और इनमें बड़ा भारी अंतर है। पढ़ाई में ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति और संसार- ये सभी ज्ञान के विषय होते हैं अर्थात पढ़ाई करने वाला तो ज्ञाता होता है और ब्रह्म, ईश्वर आदि इंद्रियों और अंतःकरण के विषय होते हैं। पढ़ाई करने वाला तो जानकारी बढ़ाना चाहता है, विद्या का संग्रह करना चाहता है, पर जो साधक मुमुक्षु, जिज्ञासु और भक्त होता है, वह अनुभव करना चाहता है अर्थात प्रकृति और संसार से संबंध विच्छेद करके और अपने आपको जानकर ब्रह्म के साथ अभिन्नता का अनुभव करना चाहता है, ईश्वर के शरण होना चाहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यद्यपि इस प्रकरण में (पंद्रहवें और इक्कीसवें श्लोक में) दो बार ‘पुरुष’ शब्द का प्रयोग किया गया है, तथापि वह दार्शनिक ‘प्रकृति पुरुष’ के अर्थ में प्रयुक्त न होकर ‘मनुष्य’ के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है।
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