श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने जिसका छेदन करने के लिए कहा था, उस संसार को यहाँ ‘क्षरः’ पद से और सातवें श्लोक में भगवान ने जिसको अपना अंश बताया था, उस जीवात्मा को यहाँ ‘अक्षरः’ पद से कहा गया है। यहाँ आये क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम शब्द क्रमशः पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग हैं। इससे यह समझना चाहिए कि प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा न तो स्त्री हैं, न पुरुष हैं और न नपुंसक ही हैं। वास्तव में लिंग भी शब्द की दृष्टि से है, तत्त्व से कोई लिंग नहीं है।[2] क्षर और अक्षर- दोनों से उत्तम ‘पुरुषोत्तम’ नाम की सिद्धि के लिए यहाँ भगवान ने क्षर और अक्षर- दोनों को ‘पुरुष’ नाम से कहा जाता है। ‘क्षरः सर्वाणि भूतानि’- इसी अध्याय के आरंभ में जिस संसारवृक्ष का स्वरूप बताकर उसका छेदन करने की प्रेरणा की गयी थी, उसी संसारवृक्ष को यहाँ ‘क्षर’ नाम से कहा गया है। यहाँ ‘भूतानि’ पद प्राणियों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरों का ही वाचक समझना चाहिए। कारण कि यहाँ भूतों को नाशवान बताया गया है। प्राणियों के शरीर ही नाशवान होते हैं, प्राणी स्वयं नहीं। अतः यहाँ ‘भूतानि’ पद जड शरीरों के लिए ही आया है। ‘कूटस्थोऽक्षर उच्यते’- इसी अध्याय के सातवें श्लोक में भगवान ने जिसको अपना सनातन अंश बताया है, उसी जीवात्मा को यहाँ ‘अक्षर’ नाम से कहा गया है। जीवात्मा चाहे जितने शरीर धारण करे, चाहे जितने लोकों में जाए, उसमें कभी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता; वह सदा ज्यों-का-त्यों रहता है।[3] इसीलिए यहाँ उसको ‘कूटस्थ’ कहा गया है। गीता में परमात्मा और जीवात्मा दोनों के स्वरूप का वर्णन प्रायः समान ही मिलता है। जैसे परमात्मा को[4] ‘कूटस्थ’ तथा[5] ‘अक्षर’ कहा गया है, ऐसे ही यहाँ[6] जीवात्मा को भी ‘कूटस्थ’ और ‘अक्षर’ कहा गया है। जीवात्मा और परमात्मा- दोनों में ही परस्पर तात्त्विक एवं स्वरूपगत एकता है। स्वरूप से जीवात्मा सदा-सर्वदा निर्विकार ही है; परंतु भूल से प्रकृति और उसके कार्य शरीरादि से अपनी एकता मान लेने के कारण उसकी ‘जीव’ संज्ञा हो जाती है, नहीं तो (अद्वैत सिद्धांत के अनुसार) वह साक्षात परमात्मतत्त्व ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता में क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम- इन तीनों का एक साथ वर्णन भिन्न-भिन्न नामों से इस प्रकार हुआ है।
अध्याय-श्लोक क्षर अक्षर पुरुषोत्तम 7।4-6 अपरा प्रकृति परा प्रकृति अहम् 8।3-4 अधिभत; कर्म अध्यात्म; अधिदैव ब्रह्म; अधियज्ञ 13।1-2 क्षेत्र क्षेत्रज्ञ माम् 14।3-4 महद्ब्रह्म; योनि गर्भ; बीज अहम्; पिता - ↑ गीता में क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम का वर्णन तीनों लिंगों में मिलता है। उदारणार्थ-
1.क्षर- क्षरः (15।16) – पुल्लिंग
अपरा (7।5) - स्त्रीलिंग
महद्ब्रह्म (14।3-4) - नपुसंकलिंग
2.अक्षर- जीवभूतः (15।7) – पुल्लिंग
जीवभूताम् (7।5) - स्त्रीलिंग
अध्यात्मम् (8।3) - नपुसंकलिंग
3.पुरुषोत्तम-भर्ता (9।17) – पुल्लिंग
गतिः (9।18) - स्त्रीलिंग
शरणम् (9।18) - नपुसंकलिंग
- ↑ गीता 8:19; 13।31
- ↑ 12।3 में
- ↑ 8।4 में
- ↑ गीता 15:16 में
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