श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
भगवान की तरफ चलने वाला साधक भगवान पर जितना-जितना अधिक विश्वास करता है और उनके आश्रित होता है, उतना ही उतना वह अभय होता चला जाता है। उसमें स्वतः यह विचार आता है कि मैं तो परमात्मा का अंश हूँ; कभी नष्ट होने वाला नहीं हूँ, तो फिर भय किस बात का?[1] और संसार के अंश शरीर आदि सब पदार्थ प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं, तो फिर भय किस बात का? ऐसा विवेक स्पष्ट रूप से प्रकट होने पर भय स्वतः नष्ट हो जाता है और साधक सर्वथा अभय हो जाता है। भगवान के साथ संबंध जोड़ने पर, भगवान को ही अपना मानने पर शरीर, कुटुम्ब आदि में ममता नहीं रहती। ममता न रहने से मरने का भय नहीं रहता और साधक अभय हो जाता है। ‘सत्त्वसंशुद्धिः’- अंतःकरण की सम्यक शुद्धि को सत्त्वसंशुद्धि कहते हैं। सम्यक शुद्धि क्या है? संसार से राग-रहित होकर भगवान में अनुराग हो जाना ही अंतःकरण की सम्मयक शुद्धि है। जब अपना विचार, भाव, उद्देश्य, लक्ष्य केवल एक परमात्मा की प्राप्ति का हो जाता है, तब अंतःकरण शुद्ध हो जाता है। कारण कि नाशवान वस्तुओं की प्राप्ति का उद्देश्य होने से ही अंतःकरण में मल, विक्षेप और आवरण- ये तीन तरह के दोष आते हैं। शास्त्रों में मल-दोष को दूर करने के लिए निष्काम भाव से कर्म (सेवा), विक्षेप-दोष को दूर करने के लिए उपासना और आवरण-दोष को दूर करने के लिए ज्ञान बताया है। यह होने पर भी अंतःकरण की शुद्धि के लिए सबसे बढ़िया उपाय है- अंतःकरण को अपना न मानना। साधक को पुराने पाप को दूर करने के लिए या किसी परिस्थिति के वशीभूत होकर किए गए पाप को दूर करने के लिए अन्य प्रायश्चित करने की उतनी आवश्यकता नहीं है। उसको तो चाहिए कि वह जो साधन कर रहा है, उसी में उत्साह और तत्परतापूर्वक लगा रहे। फिर उसके ज्ञात-अज्ञात सब पाप दूर हो जाएंगे और अंतःकरण स्वतः शुद्ध हो जाएगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राम मरे तो मैं मरूँ, नहिं तो मरे बलाय। अविनाशी का बाल का, मरे न मारा जाए ।।
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