श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
साधक भूल से किए हुए दुष्कर्मों के अनुसार अपने को दोषी मान लेता है और अपना बुरा करने वाले व्यक्ति को भी दोषी मान लेता है, जिससे उसका अंतःकरण अशुद्ध हो जाता है। उस अशुद्धि को मिटाने के लिए साधक को चाहिए कि वह भूल से किए हुए दुष्कर्म को पुनः कभी न करने का दृढ़ व्रत ले ले तथा अपना बुरा करने वाले व्यक्ति के अपराध को क्षमा मांगे बिना ही क्षमा कर दे और भगवान से प्रार्थना करे कि ‘हे नाथ!’ मेरा जो कुछ बुरा हुआ है, वह तो मेरे दुष्कर्मों का ही फल है। वह बेचारा तो मुफ्त में ही ऐसा कर बैठा है। उसका इसमें कोई दोष नहीं है. आप उसे क्षमा कर दें। ऐसा करने से अंतःकरण शुद्ध हो जाता है। ‘ज्ञानयोगव्यवस्थितिः’- ज्ञान के लिए योग में स्थित होना अर्थात परमात्मतत्त्व का जो ज्ञान (बोध) है, वह चाहे सगुण का हो या निर्गुण का, उस ज्ञान के लिए योग में स्थित होना आवश्यक है। योग का अर्थ है- सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना अर्थात अंतःकरण में हर्ष-शोकादि न होकर निर्विकार रहना। ‘दानम्’- लोकदृष्टि में जिन वस्तुओं को अपना माना जाता है, उन वस्तुओं को सत्पात्र का तथा देश, काल, परिस्थिति आदि का विचार रखते हुए आवश्यकतानुसार दूसरों की वितीर्ण कर देना ‘दान’ है। दान कई तरह के होते हैं; जैसे भूमिदान, गोदान, स्वर्णदान, अन्नदान, वस्त्रदान आदि। इन सबमें अन्नदान प्रधान है। परंतु इससे भी अभयदान प्रधान (श्रेष्ठ) है।[1] उस अभयदान के दो भेद होते है-
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न गोप्रदानं न महीप्रदानं न चान्नदानं हि तथा प्रधानम्। यथा वदन्तीह बुधाः प्रधानं सर्वप्रदानेष्टभयप्रदानम्।। (पंचतंत्र, मित्रभेद 313),
गोदान, भूमिदान और अन्नदान भी उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना कि अभयदान है। विद्वानलोग अभयदान को सब दानों में श्रेष्ठ कहते हैं।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज