श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
यह सर्वश्रेष्ठ अभयदान है। इसमें भी भगवत्संबंधी बातें दूसरों को सुनाते समय साधक वक्ता को यह सावधानी रखनी चाहिए कि वह दूसरों की अपेक्षा अपने में विशेषता न माने, प्रत्युत इसमें भगवान की कृपा माने कि भगवान ही श्रोताओं के रूप में आकर मेरा समय सार्थक कर रहे हैं। ऊपर जितने दान बताये हैं, उनके साथ अपना संबंध न जोड़कर साधक ऐसा माने कि अपने पास वस्तु, सामर्थ्य, योग्यता आदि जो कुछ भी है, वह सब भगवान ने दूसरों की सेवा करने के लिए मुझे निमित्त बनाकर दी है। अतः भगवत्प्रीत्यर्थ आवश्यकतानुसार जिस- किसी को जो कुछ दिया जाए, वह सब उसी का समझकर उसे देना ‘दान’ है। ‘दमः’- इंद्रियों को पूरी तरह वश में करने का नाम ‘दम’ है। तात्पर्य यह है कि इंद्रियों, अंतःकरण और शरीर से कोई भी प्रवृत्ति भी अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके केवल दूसरों के हित के लिए ही होनी चाहिए। इस प्रकार की प्रवृत्ति से इंद्रिय लोलुपता, आसक्ति और पराधीनता नहीं रहती एवं शरीर और इंद्रियों के बर्ताव शुद्ध, निर्मल होते हैं। साधक का उद्देश्य इंद्रियों के दमन का होने से अकर्तव्य में तो उसकी प्रवृत्ति होती ही नहीं और कर्तव्य में स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, तो उसमें स्वार्थ, अभिमान, आसक्ति, कामना आदि दोष नहीं रहते। यदि कभी किसी कार्य में स्वार्थभाव आ भी जाता है, तो वह उसका दमन करता चला जाता है, जिससे अशुद्धि मिटती जाती है और शुद्धि होती चली जाती है और आगे चलकर उसका दम अर्थात इंद्रिय संयम सिद्ध हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तव कथामृतं ताप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्। श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भूवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ।। (श्रीमद्भा. 10।31।9)
‘हे प्रभो! आपका कथामृत संसार में जो संतप्त प्राणी हैं, उनको जीवन देने वाला, शांति देने वाला है, अच्छे-अच्छे महापुरुष भी उसका हृदय से वर्णन करते हैं, वह संपूर्ण पापों का अर्थात भगवद्वमुखता का नाश करने वाला है, कानों में पड़ते ही सब तरह से मंगल ही मंगल देने वाला है, संत-महापुरुषों के द्वारा उसका विस्तार से वर्णन किया गया है। ऐसे कथामृत का पृथ्वी पर जो कथन करते हैं, वे संसार को बहुत विशेषता से दान देने वाले हैं अर्थात संसार का सबसे अधिक उपकार, हित करने वाले हैं।’ - ↑ गीता 18:68-69
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