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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 24
कन्दली स्वामी के साथ प्रतिदिन कलह करती थी और मुनीन्द्र दुर्वासा नीतियुक्त वचन कहकर अपनी पत्नी को समझाते थे; परंतु उनकी बात को वह कुछ नहीं समझती थी। वह सदा कलह में ही रुचि रखती थी। पिता के दिये हुए ज्ञान से भी वह शान्त नहीं हुई। समझाने से भी उसने अपनी आदत नहीं छोड़ी। स्वभाव को लाँघना बहुत कठिन होता है। वह बिना कारण ही पति को प्रतिदिन जली-कटी सुनाती थी। जिनके डर से सारा जगत काँपता था, वे ही मुनि उस कन्दली के कोप से थर-थर काँपते थे और उसकी की हुई कटूक्ति को चुपचाप सह लेते थे। दयानिधान मुनि मोहवश उसे तत्काल समझाने लगते थे। कुछ ही काल में उसकी सौ कटूक्तियाँ पूरी हो गयीं तो भी मुनि ने कृपापूर्वक उसकी सौ से भी अधिक कटूक्तियों को क्षमा किया। पत्नी की जली-कटी बातों से मुनि का हृदय दग्ध होता रहता था। दिये हुए वचन के अनुसार उस कटूक्तिकारिणी स्त्री के अपराध पूरे हो गये। दुर्वासा मुनि यद्यपि स्वात्माराम और दयालु थे तथापि क्रोध को नहीं छोड़ सके थे। उन्होंने मोहवश पत्नी को शाप दे दिया– ‘अरी तू राख का ढेर बन जा।’ मुनि के संकेत मात्र से वह जलकर भस्म हो गयी। जो ऐसी उच्छृंखला स्त्रियाँ हैं, उनका तीनों लोकों मे कल्याण नहीं होता। शरीर के भस्म हो जाने पर आत्मा का प्रतिबिम्बरूप जीव आकाश में स्थित हो पति से विनयपूर्वक बोला। जीव ने कहा– हे नाथ! आप अपनी ज्ञान-दृष्टि से सदा सब कुछ देखते हैं। सर्वज्ञ होने के कारण आपको सब कुछ का ज्ञान है। फिर मैं आपको क्या समझाऊँ! उत्तम वचन, कटु वचन, क्रोध, संताप, लोभ, मोह, काम, क्षुधा, पिपासा, स्थूलता, कृशता, नाश, दृश्य, अदृश्य तथा उत्पन्न होना– ये सब शरीर के धर्म हैं। न तो जीव के धर्म हैं और न आत्मा के ही। सत्त्व, रज और तम– इन तीन गुणो से शरीर बना है। वह भी नाना प्रकार का है। सुनिये, मैं आपको बताती हूँ। किसी शरीर में सत्त्वगुण की अधिकता होती है, किसी में रजोगुण की और किसी में तमोगुण की। मुने! कहीं भी सम गुणों वाला शरीर नहीं है। जब सत्त्वगुण का उद्रेक होता है तब मोक्ष की इच्छा जाग्रत होती है, रजोगुण की वृद्धि से कर्म करने की इच्छा प्रबल होती है और तमोगुण से जीव-हिंसा, क्रोध एवं अहंकार आदि दोष प्रकट होते हैं। क्रोध से निश्चय ही कटु वचन बोला जाता है। कटु वचन से शत्रुता होती है और शत्रुता से मनुष्य में तत्काल अप्रियता आ जाती है। अन्यथा इस भूतल पर कौन किसका शत्रु है? कौन प्रिय है और कौन अप्रिय? कौन मित्र है और कौन वैरी? सर्वत्र शत्रु और मित्र की भावना में इन्द्रियाँ ही बीज हैं। स्त्रियों के लिये पति प्राणों से भी अधिक प्रिय है और पति के लिये स्त्री प्राणों से भी बढ़कर प्यारी है। फिर भी दुर्वचन के कारण एक क्षण में हम दोनों के बीच तत्काल शत्रुता पैदा हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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