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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 24
सुन्दरी स्त्री वाला पुरुष जब तक जीता है, तब तक अपने जन्म-मरणरूपी बन्धन का निवारण नहीं कर सकता। जब तक जीवधारी का जन्म होता है, तब तक उसे भोग सुखदायक जान पड़ते हैं। परंतु मुनीन्द्र! सबसे अधिक सुखदायिनी है श्रीहरि के चरणकमलों की सेवा। मैं यहाँ श्रीकृष्ण-चरणारविन्दों के चिन्तन में लगा था, परंतु मेरे इस शुभ अनुष्ठान में भारी विघ्न उपस्थित हो गया। न जाने पूर्वजन्म के किस कर्म-दोष से यह विघ्न आया है। किंतु मुने! मैं आपकी कन्या के सौ कटु वचनों को अवश्य क्षमा करूँगा। इससे अधिक होने पर उसका फल उसे दूँगा। स्त्री के कटु वचनों को सुनते रहना– यह पुरुष के लिये सबसे बड़ी निन्दा की बात है। जिसे स्त्री ने जीत लिया हो, वह तीनों लोकों के सत्पुरुषों में अत्यन्त निन्दित है। मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके इस समय आपकी पुत्री को ग्रहण करूँगा। ऐसा कहकर दुर्वासा चुप हो गये। और्व मुनि ने वेदोक्त-विधि से अपनी पुत्री उनको ब्याह दी। दुर्वासा ने ‘स्वस्ति’ कहकर कन्या का पाणिग्रहण किया। और्व मुनि ने उन्हें दहेज दिया और अपनी कन्या उन्हें सौंपकर वे मोहवश रोने लगे। संतान के वियोग से होने वाला शोक आत्माराम मुनि को भी नहीं छोड़ता। और्व बोले– बेटी! सुनो। मैं तुम्हें नीति का परम दुर्लभ सार-तत्त्व बता रहा हूँ। वह हितकारक, सत्य, वेदप्रतिपादित तथा परिणाम में सुखद है। नारी के लिये अपना पति ही इहलोक और परलोक में सबसे बड़ा बन्धु है। कुलवधुओं के लिये पति से बढ़कर दूसरा कोई प्रियतम नहीं है। पति ही उनका महान गुरु है। देवपूजा, व्रत, दान, तप, उपवास, जप, सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान, समस्त यज्ञों की दीक्षा, पृथ्वी की परिक्रमा तथा ब्राह्मणों और अतिथियों का सेवन– ये सब पतिसेवा की सोलहवीं कला के समान भी नहीं हैं। पतिव्रता को इन सबसे क्या प्रयोजन है? समस्त शास्त्रों में पतिसेवा को परम धर्म कहा गया है। अपनी बुद्धि से पति को सदा नारायण से भी अधिक समझकर तुम उनके चरणकमलों की प्रतिदिन सेवा करना। परिहास, क्रोध, भ्रम अथवा अवहेलना से भी अपने स्वामी मुनि के लिये उनके सामने या परोक्ष में भी कभी कटु वचन न बोलना। भारतवर्ष की भूमि पर जो स्त्रियाँ स्वेच्छानुसार कटु वचन बोलती अथवा दुराचार में प्रवृत्त होती हैं, उनकी शुद्धि के लिये श्रुति में कोई प्रायश्चित्त नहीं है। उन्हें सौ कल्पों तक नरक में रहना पड़ता है। जो स्त्री समस्त धर्मों से सम्पन्न होने पर भी पति के प्रति कटु वचन बोलती है, उसका सौ जन्मों का किया हुआ पुण्य निश्चय ही नष्ट हो जाता है। इस प्रकार अपनी कन्या को देकर और उसे समझा-बुझाकर मुनिवर और्व चले गये तथा स्वात्माराम मुनि दुर्वासा स्त्री के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने आश्रम में रहने लगे। चतुर पुरुष का चतुरा स्त्री के साथ योग्य समागम हुआ। मुनीश्वर दुर्वासा तपस्या छोड़कर घर-गृहस्थी में आसक्त हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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