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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 15
श्रीकृष्ण बोले– राधे! गोलोक में देवमण्डली के भीतर जो वृत्तान्त घटित हुआ था, उसका तुम्हें स्मरण तो है न? प्रिये! पूर्वकाल में मैंने जो कुछ स्वीकार किया है, उसे आज पूर्ण करूँगा। सुमुखि राधे! तुम मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर प्रियतमा हो। जैसी तुम हो, वैसा मैं हूँ; निश्चय ही हम दोनों में भेद नहीं है। जैसे दूध में धवलता, अग्नि में दाहिका शक्ति और पृथ्वी में गन्ध होती है; इसी प्रकार तुममें मैं व्याप्त हूँ। जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता तथा जैसे स्वर्णकार सुवर्ण के बिना कदापि कुण्डल नहीं तैयार कर सकता; उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टि करने में समर्थ नहीं हो सकता। तुम सृष्टि की आधारभूता हो और मैं अच्युत बीजरूप हूँ। साध्वि! जैसे आभूषण शरीर की शोभा का हेतु है, उसी प्रकार तुम मेरी शोभा हो। जब मैं तुमसे अलग रहता हूँ, तब लोग मुझे कृष्ण (काला-कलूटा) कहते हैं और जब तुम साथ हो जाती हो तो वे ही लोग मुझे श्रीकृष्ण (शोभाशाली श्रीकृष्ण)– की संज्ञा देते हैं। तुम्हीं श्री हो, तुम्हीं सम्पत्ति हो और तुम्हीं आधारस्वरूपिणी हो। तुम सर्वशक्तिस्वरूपा हो और मैं अविनाशी सर्वरूप हूँ। जब मैं तेजःस्वरूपा होता हूँ, तब तुम तेजोरूपिणी होती हो। जब मैं शरीररहित होता हूँ, तब तुम भी अशरीरिणी हो जाती हो। सुन्दरि! मैं तुम्हारे संयोग से ही सदा सर्व-बीजस्वरूप होता हूँ। तुम शक्तिस्वरूपा तथा सम्पूर्ण स्त्रियों का स्वरूप धारण करने वाली हो। मेरा अंग और अंश ही तुम्हारा स्वरूप है। तुम मूलप्रकृति ईश्वरी हो। वरानने! शक्ति, बुद्धि और ज्ञान में तुम मेरे ही तुल्य हो। जो नराधम हम दोनों में भेदबुद्धि करता है, उसका कालसूत्र नामक नरक में तब तक निवास होता है, जब तक जगत में चन्द्रमा और सूर्य विद्यमान हैं। वह अपने पहले और बाद की सात-सात पीढ़ियों को नरक में गिरा देता है। उसका करोड़ों जन्मों का पुण्य निश्चय ही नष्ट हो जाता है। जो नराधम अज्ञानवश हम दोनों की निन्दा करते हैं, वे जब तक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता है, तब तक घोर नरक में पकाये जाते हैं। ‘रा’ शब्द का उच्चारण करने वाले मनुष्य को मैं भयभीत-सा होकर उत्तम भक्ति प्रदान करता हूँ और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने वाले के पीछे-पीछे इस लोभ से डोलता फिरता हूँ कि पुनः ‘राधा’ शब्द का श्रवण हो जाये। जो जीवनपर्यन्त सोलह उपचार अर्पण करके मेरी सेवा करते हैं, उन पर मेरी जो प्रीति होती है, वही प्रीति ‘राधा’ शब्द के उच्चारण से होती है। बल्कि उससे भी अधिक प्रीति ‘राधा’ नाम के उच्चारण से होती है। राधे! मुझे तुम उतनी प्रिया नहीं हो, जितना तुम्हारा नाम लेने वाला प्रिय है। ‘राधा’ नाम का उच्चारण करने वाला पुरुष मुझे ‘राधा’ से भी अधिक प्रिय है। ब्रह्मा, अनन्त, शिव, धर्म, नर-नारायण ऋषि, कपिल, गणेश और कार्तिकेय भी मेरे प्रिय हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री, प्रकृति– ये देवियाँ तथा देवता भी मुझे प्रिय हैं; तथापि वे राधा नाम का उच्चारण करने वाले प्राणियों के समान प्रिय नहीं हैं। उपर्युक्त सब देवता मेरे लिये प्राण के समान हैं; परंतु सती राधे! तुम तो मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर हो। वे सब लोग भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित हैं; किंतु तुम तो मेरे वक्षःस्थल में विराजमान हो। जो मेरी चतुर्भुज मूर्ति अपनी प्रिया को वक्षःस्थल में धारण करती है, वही मैं श्रीकृष्णस्वरूप होकर सदा स्वयं तुम्हारा भार वहन करता हूँ। यों कहकर श्रीकृष्ण उस मनोरम शय्या पर विराजमान हुए, तब राधिका भक्तिभाव से मस्तक झुकाकर अपने प्राणनाथ से बोलीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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