विषय सूची
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 5
परमेश्वर! आपका जो परम सुन्दर और कमनीय किशोर-रूप है, जो मन्त्रोक्त ध्यान के अनुरूप है, आप उसी का हमें दर्शन कराइये। जिसकी अंगकान्ति नूतन जलधर के समान श्याम है, जो पीताम्बरधारी तथा परम सुन्दर है, जिसके दो भुजाएँ, हाथ में मुरली और मुख पर मन्द-मन्द मुस्कान है, जो अत्यन्त मनोहर है, माथे पर मोरपंख का मुकुट धारण करता है, मालती के पुष्पसमूहों से जिसका श्रृंगार किया गया है, जो चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर के अंगराग से चर्चित है, अमूल्य रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित आभूषणों से विभूषित है, बहुमूल्य रत्नों के बने हुए किरीट-मुकुट जिसके मस्तक को उद्भासित कर रहे हैं, जिसका मुखचन्द्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को चुराये लेता है, जो पके बिम्बफल के समान लाल ओठों से सुशोभित है, परिपक्व अनार के बीज की भाँति चमकीली दन्तपंक्ति जिसके मुख की मनोरमता को बढ़ाती है, जो रास-रस के लिए उत्सुक हो केलि-कदम्ब के नीचे खड़ा है, गोपियों के मुखों की ओर देखता है तथा श्रीराधा के वक्षःस्थल पर विराजित है; आपके उसी केलि-रसोत्सुक रूप को देखने की हम सबकी इच्छा है। ऐसा कहकर विश्वविधाता ब्रह्मा उन्हें बारंबार प्रणाम करने लगे। धर्म और शंकर ने भी इसी स्तोत्र से उनका स्तवन किया तथा नेत्रों में आँसू भरकर बारंबार वन्दना की।[1] मुने! उन त्रिदेश्वरों ने खड़े-खड़े पुनः स्तवन किया। वे सब-के-सब वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के तेज से व्याप्त हो रहे थे। धर्म, शिव और ब्रह्माजी के द्वारा किये गये इस स्तवराज को जो प्रतिदिन श्रीहरि के पूजाकाल में भक्तिपूर्वक पढ़ता है, वह उनकी अत्यन्त दुर्लभ और दृढ़ भक्ति प्राप्त कर लेता है। देवता, असुर और मुनीन्द्रों को श्रीहरि का दास्य दुर्लभ है; परंतु इस स्तोत्र का पाठ करने वाला उसे पा लेता है। साथ ही अणिमा आदि सिद्धियों तथा सालोक्य आदि चार प्रकार की मुक्तियों को भी प्राप्त कर लेता है। इस लोक में भी वह भगवान विष्णु के समान ही विख्यात एवं पूजित होता है; इसमें संशय नहीं है। निश्चय ही उसे वाक्सिद्धि और मन्त्रसिद्धि भी सुलभ हो जाती है। वह सम्पूर्ण सौभाग्य और आरोग्य लाभ करता है। उसके यश से सारा जगत पूर्ण हो जाता है। वह इस लोक में पुत्र, विद्या, कविता, स्थिर लक्ष्मी, साध्वी सुशीला पतिव्रता पत्नी, सुस्थिर संतान तथा चिरकालस्थायिनी कीर्ति प्राप्त कर लेता है और अन्त में उसे श्रीकृष्ण के निकट स्थान प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वरं वरेण्यं वरदं वरदानां च कारणम्। कारणं सर्वभूतानां तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
मङ्गल्यं मङ्गलार्हं च मङ्गलं मङ्गलप्रदम्। समस्तमङ्गलाधारं तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
स्थितं सर्वत्र निर्लिप्तमात्मरूपं परात्परम्। निरीहमवितर्क्यं च तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
सगुणं निर्गुणं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। साकारं च निराकारं तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
त्वमनिर्वचनीयं च व्यक्तमव्यक्तमेककम्। स्वेच्छामयं सर्वरूपं तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
गुणत्रयविभागाय रूपत्रयधरं परम्। कलया ते सुराः सर्वे किं जानन्ति श्रुतेः परम्।।
सर्वाधारं सर्वरूपं सर्वबीजमबीजकम्। सर्वान्तकमनन्तं च तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
लक्ष्यं यद् गुणरूपं च वर्णनीयं विचक्षणैः। किं वर्णयाम्यलक्ष्यं ते तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
अशरीरं विग्रहवदिन्द्रियवदतीन्द्रियम्। यदसाक्षि सर्वसाक्षि तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
गमनार्हमपादं यदचक्षुः सर्वदर्शनम्। हस्तास्यहीनं यद् भोक्तुं तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
वेदे निरूपितं वस्तु सन्तः शक्ताश्च वर्णितुम्। वेदेऽनिरूपितं यत्तत्तेजोरूपं नमाम्हयम्।।
सर्वेशं यदनीशं यत् सर्वादि यदनादि यत्। सर्वात्मकमनात्मं यत्तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
अहं विधाता जगतां वेदानां जनकः स्वयम्। पाता धर्मो हरो हर्ता स्तोतुं शक्तो न कोऽपि यत्।।
सेवया तव धर्मोऽयं रक्षितारं च रक्षति। तवाज्ञया च संहर्ता त्वया काले निरूपिते।।
निषेकलिपिकर्ताहं त्वत्पादाम्भोजसेवया। कर्मिणां फलदाता च त्वं भक्तानां च नः प्रभुः।।
ब्रह्माण्डे विम्बसदृशा भूत्वा विषयिणो वयम्। एं कतिविधाः सन्ति तेष्वनन्तेषु सेवकाः।।
यथा न संख्या रेणूनां तथा तेषामणीयसाम्। सर्वेषां जगकश्चेशो यस्त्वां स्तोतुं च कः क्षमः।।
एकैकलोमविवरे ब्रह्माण्डमेकमेककम्। यस्यैव महतो विष्णोः षोडशांशस्तवैव सः।।
ध्यायन्ति योगिनः सर्वे तवैतद्रूपमीप्सितम्। त्वद्भक्ता दास्यनिरताः सेवन्ते चरणाम्बुजम्।।
किशोरं सुन्दरतरं यद्रूपं कमनीयकम्। मन्त्रध्यानानुरूपं च दर्शयास्माकमीश्वर।।
नवीनजलदश्यामं पीताम्बरधरं परम्। द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं सुमनोहरम्।।
मयूरपुच्छचूडं च मालतीजालमण्डितम्। चन्दनागुरुकस्तूरीकुंकुमद्रवचर्चितम्।।
अमूल्यरत्नसाराणां भूषणैश्च विभूषितम्। अमूल्यरत्नरचितकिरीटमुकुटोज्ज्वलम्।।
शरत्प्रफुल्लकमलप्रभामोष्यास्यचन्द्रकम्। पक्वबिम्बसमानेन ह्यधरौष्ठेन राजितम्।।
पक्वदाडिम्बबीजाभदन्तपंक्तिमनोरमम्। केलिकदम्बमूले च स्थितं रासरसोत्सुकम्।।
गोपीवक्त्राणि पश्यन्तं राधावक्षःस्थलस्थितम्। एवं वाञ्छास्ति रूपं ते द्रष्टुं केलिरसोत्सुकम्।।
इत्येवमुक्त्वा विश्वसृट् प्रणनाम पुनः पुनः। एवं स्तोत्रेण तुष्टाव धर्मोऽपि शंकरः स्वयम्।
नमाम भूयो भूयश्च साश्रुपूर्णविलोचनः।।-(श्रीकृष्णजन्मखण्ड 5। 94-120)
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |