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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 5
वीणा आदि के स्वर-यन्त्रों के साथ गोपियों का सुमधुर गीत सुनायी पड़ता था। मृदंग तथा अन्यान्य वाद्यों की ध्वनि से वह स्थान बड़ा मोहक जान पड़ता था। श्रीकृष्ण-तुल्य रूप, रंग और वेश-भूषावाले गोपसमूहों से घिरे हुए उस अन्तःपुर को झुंड-की-झुंड गोपांगनाएँ, जो श्रीराधा की सखियाँ थीं, सुशोभित कर रही थीं। श्रीराधा और श्रीकृष्ण के गुणगान सम्बन्धी पदों का संगीत वहाँ सब ओर सुनायी पड़ता था। ऐसे अन्तःपुर को देखकर वे देवता विस्मय से विमुग्ध हो उठे। उन्होंने वहाँ मधुर गीत सुना और उत्तम नृत्य देखा। वे सब देवता वहाँ स्थिरभाव से खड़े हो गये। उन सबका चित्त ध्यान में एकतान हो रहा था। उन देवेश्वरों को वहाँ रमणीय रत्नसिंहासन दिखायी दिया, जो सौ धनुष के बराबर विस्तृत था। वह सब ओर से मण्डलाकार दिखायी देता था। श्रेष्ठ रत्नों के बने हुए छोटे-छोटे कलश-समूह उसमें जुड़े हुए थे। विचित्र पुतलियों, फूलों तथा चित्रमय काननों से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। ब्रह्मन्! वहाँ उनको एक अत्यन्त अद्भुत और आश्चर्यमय तेजःपुञ्ज दिखायी दिया, जो करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान था। वह दिव्य ज्योति से जाज्वल्यमान हो रहा था। ऊपर चारों ओर सात ताड़ की दूरी में उसका प्रकाश फैला हुआ था। सबके तेज को छीन लेने वाला वह प्रकाशपुञ्ज सम्पूर्ण आश्रम को व्याप्त करके देदीप्यमान था। वह सर्वत्र व्यापक, सबका बीज तथा सबके नेत्रों को अवरुद्ध कर देने वाला था। उस तेजःस्वरूप को देखकर वे देवता ध्यानमग्न हो गये तथा भक्तिभाव से मस्तक एवं कंधे झुकाकर बड़ी श्रद्धा के साथ उसको प्रणाम करने लगे। उस समय परमानन्द की प्राप्ति से उनके नेत्रों में आँसू भर आये थे और सारे अंग पुलकित हो गये थे। वे ऐसे जान पड़ते थे मानो उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण हो गये हों। उन तेजःस्वरूप परमेश्वर को नमस्कार करके वे तीनों देवेश्वर उठकर खड़े हो गये और उन्हीं का ध्यान करते हुए उस तेज के सामने गये। ध्यान करते-करते जगत्स्रष्टा ब्रह्मा के दोनों हाथ जुड़ गये। नारद! उन्होंने शिव को दाहिने और धर्म को बायें कर लिया तथा वे भक्ति के उद्रेक से चित्त को ध्यानमग्न करके उन परात्पर, गुणातीत, परमात्मा जगदीश्वर श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे। ब्रह्मा जी बोले– जो वर, वरेण्य, वरद, वरदायकों के कारण तथा सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति के हेतु हैं; उन तेजःस्वरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मंगलकारी, मंगल के योग्य, मंगलरूप, मंगलदायक तथा समस्त मंगलों के आधार हैं; उन तेजोमय परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ। जो सर्वत्र विद्यमान, निर्लिप्त, आत्मस्वरूप, परात्पर, निरीह और अवितर्क्य हैं; उन तेजःस्वरूप परमेश्वर को नमस्कार है। जो सगुण, निर्गुण, सनातन, ब्रह्म, ज्योतिःस्वरूप, साकार एवं निराकार हैं; उन तेजोरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो! आप अनिर्वचनीय, व्यक्त, अव्यक्त, अद्वितीय, स्वेच्छामय तथा सर्वरूप हैं। आप तेजःस्वरूप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। तीनों गुणों का विभाग करने के लिये आप तीन रूप धारण करते हैं; परंतु हैं तीनों गुणों से अतीत। समस्त देवता आपकी कला से प्रकट हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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