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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 5
सुदामा का रूप श्रीकृष्ण के समान ही मनोहर तथा अवर्णनीय था। उनके साथ बीस लाख गोपों का समूह रहता था। दण्डधारी सुदामा का दर्शन मात्र करके देवता लोग दूसरे द्वार पर चले गये। वह ग्यारहवां द्वार अत्यन्त विचित्र और अद्भुत था। वहाँ सुन्दर चित्र अंकित थे। वहाँ के द्वारपाल व्रजराज श्रीदामा थे, जिन्हें राधिका जी अपने पुत्र के समान मानती थीं। वे पीताबर से विभूषित थे, बहुमूल्य रत्नों द्वारा रचित रम्य सिंहासन पर आसीन थे और अमूल्य रत्नाभरण उनकी शोभा बढ़ाते थे। उनका रूप बड़ा ही मनोहर था। चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से उनका श्रृंगार हुआ था। वे अपने कपोलों के योग्य कानों में उत्तम रत्नमय कुण्डल धारण करके प्रकाशित हो रहे थे। श्रेष्ठ रत्नों द्वारा रचित विचित्र मुकुट उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रहा था। प्रफुल्ल मालती-पुष्प की मालाओं से उनके सारे अंग विभूषित थे। करोड़ों गोपों से घिरे होने के कारण राजाधिराज से भी अधिक उनकी शोभा होती थी। उनकी अनुमति ले देवता लोग प्रसन्नतापूर्वक बारहवें द्वार पर गये, जहाँ बहुमूल्य रत्नों की बनी हुई बहुत-सी वेदिकाएँ प्रकाशित हो रही थीं। वह विचित्र द्वार सबके लिये दुर्लभ, अदृश्य और अश्रुत था। वज्रमयी भीतों पर अंकित चित्रों के कारण उस द्वार की सुन्दरता और मनोहरता बहुत बढ़ गयी थी। देवताओं ने देखा बारहवें द्वार की रक्षा में सुन्दरी गोपांगनाएँ नियुक्त हुई हैं। वे सब-की-सब-रूप-यौवन से सम्पन्न, रत्नाभरणों से विभूषित, पीताम्बरधारिणी तथा बँधे हुए केश-कलाप के भार से सुशोभित थीं। उनके सारे अंग सुस्निग्ध मालती की मालाओं से अलंकृत थे। रत्नों के बने हुए कंगन, बाजूबंद तथा नूपुर उन-उन अंगों की शोभा बढ़ाते थे। उनके दोनों कपोल दिव्य रत्नमय कुण्डलों से उद्भासित हो रहे थे। वे चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम के द्रव से अपना श्रृंगार किये हुए थीं। वहाँ सौ कोटि गोपियों में एक श्रेष्ठ गोपी थी, जो श्रीहरि को भी परम प्रिय थी। उन करोड़ों गोपिकाओं को देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। मुने! उन सब गोपियों से अनुमति ले वे देवता प्रसन्नतापूर्वक दूसरे द्वार पर गये। इस तरह क्रमशः तीन द्वारों पर उन्होंने देखा– श्रेष्ठ और अत्यन्त मनोहर गोपांगनाएँ उनकी रक्षा कर रही हैं। वे सुन्दरियों में भी सुन्दरी, रमणीया, धन्या, मान्या और शोभाशालिनी हैं। सब-की-सब सौभाग्य में बढ़ी-चढ़ी तथा श्रीराधिका की प्रिया हैं। सुरम्य भूषणों से भूषित हुई उन गोपसुन्दरियों के अंगों में नूतन यौवन का अंकुर प्रकट हुआ है। इस प्रकार वे तीनों द्वार स्वप्नकालिक अनुभव के समान अद्भुत, अश्रुत, अदृष्टपूर्व, अतिरमणीय और विद्वानों के द्वारा भी अवर्णनीय थे। उन सबको देखकर और उन-उन गोपांगनाओं से बातचीत करके आश्चर्यचकित हुए वे तीनों देवेश्वर सोलहवें मनोहर द्वार पर गये, जो श्रीराधिका के अन्तःपुर का द्वार था। वह सब द्वारों में प्रधान तथा केवल गोपांगनागणों द्वारा ही रक्षणीय था। श्रीराधा की जो तैंतीस समवयस्का सखियाँ थीं, वे ही इस द्वार का संरक्षण करती थीं। उन सबकी वेशभूषा अवर्णनीय थी। वे नाना प्रकार के सद्गुणों से युक्त, रूप-यौवन से सम्पन्न तथा रत्नमय अलंकारों से विभूषित थीं। रत्ननिर्मित कंकण, केयूर तथा नूपुर धारण किये हुए थीं। उनके कटिप्रदेश श्रेष्ठ रत्नों की बनी हुई क्षुद्रघण्टिकाओं से अलंकृत थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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