ब्राह्मण नहाया हो अथवा नहीं, उपर्युक्त शौचाचार के पालन मात्र से शुद्ध हो जाता है तथा जो शौच से हीन है, वह नित्य अपवित्र एवं समस्त कर्मों के अयोग्य है। विद्वान ब्राह्मण इस शौचाचार का पालन करके मुँह धोये। पहले सोलह बार कुल्ला करके मुख शुद्ध करने के पश्चात् दँतुवन से दाँत की सफाई करे। फिर सोलह बार कुल्ला करके मुँह शुद्ध करे।
नारद! दाँत माँजने के लिये जो काठ की लकड़ी ली जाती है, उसके विषय में भी कुछ नियम है, उसे सुनो।
सामवेद में श्रीहरि ने आह्निक प्रकरण में इसका निरूपण किया है। अपामार्ग [1], सिन्धुवार[2], आम, करवीर[3], खैर, सिरस, जाति[4], पुन्नाग[5], शाल[6], अशोक, अर्जुन, दूधवाला वृक्ष, कदम्ब, जामुन, मौलसिरी, उड्र[7] और पलाश– ये वृक्ष दँतुवन के लिये उत्तम माने गये हैं। बेर, देवदारु, मन्दार[8], सेमर, कँटीले वृक्ष तथा लता आदि को त्याग देना चाहिये। पीपल, प्रियाल (पियाल), तिन्तिडीक[9], ताड़, खजूर और नारियल आदि वृक्ष दँतुवन के उपयोग में वर्जित हैं। जिसने दाँतों की शुद्धि नहीं की, वह सब प्रकार के शौच से रहित है। शौचहीन पुरुष सदा अपवित्र होता है। वह समस्त कर्मों के लिये अयोग्य है। शौचाचार का पालन करके शुद्ध हुआ ब्राह्मण स्नान के पश्चात् दो धुले हुए वस्त्र धारण करके पैर धो आचमन के पश्चात् प्रातःकाल की संध्या करे।
इस प्रकार जो कुलीन ब्राह्मण तीनों संध्याओं के समय संध्योपासना करता है, वह समस्त तीर्थों में स्नान के पुण्य का भागी होता है। जो त्रिकाल संध्या नहीं करता, वह अपवित्र है। समस्त कर्मों के अयोग्य है। वह दिन में जो काम करता है, उसके फल का भागी नहीं होता। जो प्रातः और सायं संध्या का अनुष्ठान नहीं करता, वह शूद्र के समान है। उसको समस्त ब्राह्मणोचित कर्म से बाहर निकाल देना चाहिये।[10] प्रातः, मध्याह्न और सांय-संध्या का परित्याग करके द्विज प्रतिदिन ब्रह्महत्या और आत्महत्या के पाप का भागी होता है। जो एकादशी के व्रत और संध्योपासना से हीन है, वह द्विज शूद्रजाति की स्त्री से सम्बन्ध रखने वाले पापी की भाँति एक कल्प तक कालसूत्र नामक नरक में निवास करता है। प्रातःकाल की संध्योपासना करके श्रेष्ठ साधक गुरु, इष्टदेव, सूर्य, ब्रह्मा, महादेव, विष्णु, माया, लक्ष्मी और सरस्वती को प्रणाम करे।