विषय सूची
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 118
श्रीमहादेव जी ने कहा- सेनाध्यक्षो! गोलोकनाथ भगवान चक्रपाणि आ गये हैं। वे क्षणभर में विश्व-समूह का विनाश कर सकते हैं; फिर इस नगर की तो बात ही क्या है। अतः तुम सब लोग सभी उपायों द्वारा यत्नपूर्वक बाण की रक्षा करो। अब बाण लम्बोदर गणेश का स्मरण करके संग्राम भूमि को जाय। उसके दक्षिणभाग में स्कन्द, आगे-आगे गणेश्वर और वामभाग में आठों भैरव, एकादश रुद्र, स्वयं महारथी नन्दी, महाकाल, वीरभद्र तथा अन्यान्य सैनिक उसकी रक्षा करें। ऊर्ध्वभाग में दुर्गा, भद्राकाली, उग्रचण्डा और कोटरी को रहना चाहिए। दुर्गतिनाशिनी दुर्गे! बाण की रक्षा करो। महाभागे! तुम्हीं श्रीकृष्ण की शक्ति हो; इसीलिए ‘नारायणी’ कही जाती हो। विष्णुमाये! तुम जगज्जननी तथा संपूर्ण मंगलों की भी मंगलस्वरूपा हो; अतः चक्रं के साररूप अमोघ सुदर्शन चक्र से बाण को बचाओ; क्योंकि बाण मुझे गणेश, कार्तिकेय आदि सभी से भी बढ़कर प्रिय है। अतः बाण के मस्तक पर तुम अपने चरणकमल की रज के साथ-साथ अपना वरद हस्त स्थापित करो। शिवजी का कथन सुनकर दुर्गतिनाशिनी दुर्गा मुस्करायीं और समयोचित यथार्थ मधुर वचन बोलीं। पार्वती जी ने कहा- बाण! तुम्हारे पास जो-जो उत्तम मणि, रत्न, मोती, माणिक्य और हीरे आदि हैं, उस सारे धन को तथा रत्नाभरणों से विभूषित अपनी कन्या उषा को रत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित परम श्रेष्ठ अनिरुद्ध को आगे करके परमात्मा श्रीकृष्ण को सौंप दो और इस प्रकार अपने राज्य को निष्कण्टक बना लो। भला, जिसके निकल जाने पर इंद्रियों सहित सभी प्राण विलीन हो जाते हैं, उस जीव का आत्मा के साथ युद्ध कैसा? मैं ही शक्ति हूँ, ब्रह्मा मन हैं और स्वयं शिव ज्ञान स्वरूप हैं। शिव का त्याग करके देह तुरंत ही गिर जाता है और शवरूप हो जाता है। शिव जी! भला, संग्राम में सुदर्शनचक्र के तेज के सामने कौन ठहकर सकता है? श्रीकृष्ण सबके परमात्मा, भक्तानुग्रहमूर्ति, नित्य, सत्य, परिपूर्णतम प्रभु हैं। गणेश और कार्तिकेय तथा उन दोनों से भी परे आप मेरे लिए प्रिय हैं और किंकरों में बाण प्रिय है; किंतु श्रीकृष्ण से बढ़कर प्यारा दूसरा कोई नहीं है। मैं ही वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, गोलोक में स्वयं राधिका, शिवलोक में शिवा और ब्रह्मलोक में सरस्वती हूँ। पूर्वकाल में मैं ही दैत्यों का संहार करके दक्षकन्या सती हुई, फिर वही मैं आपकी निन्दा के कारण शरीर का त्याग करके शैलकन्या पार्वती बनी। रक्तबीज के युद्ध में मैंने ही मूर्तिभेद से काली का रूप धारण किया था। मैं ही वेदमाता सावित्री, जनकनन्दिनी सीता और भारतभूमि पर द्वारका में भीष्मक पुत्री रुक्मिणी हूँ। इस समय दैववश सुदामा के शाप से मैं वृषभानु की कन्या होकर प्रकट हुई हूँ और पुण्यमय वृन्दावन में श्रीकृष्ण की धर्मपत्नी हूँ। आप तो स्वयं सर्वज्ञ सनातन भगवान शिव हैं। भला, मैं आपको क्या समयोचित कर्तव्य बतला सकती हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |