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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 66-67
वे ही दक्षकन्या सती हैं और वे ही हैं गिरिराजकुमारी पार्वती। कैलास में सौभाग्यशालिनी पार्वती शिव के वक्षःस्थल पर विराजमान होती हैं। तुम्हीं अपनी अंश से सिन्धुकन्या होकर क्षीरसागर में श्रीविष्णु के वक्षःस्थल पर विराजमान होती हो। सृष्टिकाल में मैं ही अपने अंश से ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप धारण करता हूँ तथा तुम लक्ष्मी, शिवा, धात्री एवं सावित्री आदि पृथक-पृथक रूप धारण करती हो। गोलोक के रासमण्डल में तुम स्वयं ही सदा रासेश्वरी के पद पर प्रतिष्ठित हो। रमणीय वृन्दावन में वृन्दा तथा विरजा-तट पर विरजा के रूप में तुम्हीं शोभा पाती हो। वही तुम इस समय सुदामा के शाप से पुण्यभूमि भारत वर्ष में आयी हो। सुंदरि! भारतवर्ष और वृन्दावन को पवित्र करना ही तुम्हारे शुभागमन का उद्देश्य है। समस्त लोकों में जो संपूर्ण स्त्रियाँ हैं, वे तुम्हारी ही कलांश कला से प्रकट हुई हैं। जो स्त्री है, वह तुम हो; जो पुरुष है, वह मैं हूँ। मै ही अपनी कला से अग्निरूप में प्रकट हुआ हूँ और तुम अग्नि की दाहिका शक्ति एवं प्रियपत्नी स्वाहा हो। तुम्हारे साथ रहने पर ही मैं जलाने में समर्थ हूँ, तुम्हारे बिना नहीं है। मैं दीप्तिमानों में सूर्य हूँ और तुम्हीं अपनी कला से संज्ञा होकर प्रभा का विस्तार करती हो। तुम्हारे सहयोग से मैं ही प्रकाशित होता हूँ। तुम्हारे बिना मैं दीप्तिमान नहीं हो सकता। मैं कला से चंद्रमा हूँ और तुम शोभा तथा रोहिणी हो। तुम्हारे साथ रहकर ही मैं मनोहर बना हूँ; तुम्हारे न होने पर तो मुझमें कोई सौन्दर्य नहीं है। मैं ही अपनी कला से इंद्र हुआ हूँ और तुम्ही स्वर्ग की मूर्तिमती लक्ष्मी शची हो। तुम्हारे साथ होने से ही मैं देवताओं का राजा इंद्र हूँ; तुम्हारे बिना तो मैं श्रीहीन हो जाऊँगा। मैं ही अपनी कला से धर्म हूँ और तुम धर्म की पत्नी मूर्ति हो। यदि धर्म-क्रियारूपिणी तुम साथ न दो तो मैं धर्मकृत्य के संपादन में असमर्थ हो जाऊँ। मैं ही कला से यज्ञरूप हूँ और तुम अपने अंश से दक्षिणा हो। तुम्हारे साथ ही मैं यज्ञफल का दाता हूँ; तुम न हो तो मैं फल देने में कदापि समर्थ न होऊँ। मैं ही अपनी कला से पितृलोक हूँ और तुम अपने अंश से सती स्वधा हो। तुम्हारे सहयोग से ही मैं कव्य (श्राद्ध) दान में समर्थ होता हूँ; तुम न हो तो मैं उसमें कदापि समर्थ न हो सकूँगा। मैं पुरुष हूँ और तुम प्रकृति हो; तुम्हारे बिना मैं सृष्टि नहीं कर सकता। ठीक वैसे ही, जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता। तुम संपत्तिरूपिणी हो और मैं तुम्हारे साथ उस सम्पत्ति का ईश्वर हूँ। लक्ष्मीस्वरूपा तुमसे संयुक्त होकर ही मैं लक्ष्मीवान् बना हूँ; तुम्हारे न होने से तो मैं सर्वथा लक्ष्मीहीन ही हूँ। मैं कला से शेषनाग हुआ हूँ और तुम अपने अंश से वसुधा हो। सुंदरि! शस्य तथा रत्नों की आधारभूता तुमको मैं अपने मस्तक पर धारण करता हूँ। तुम कान्ति, शान्ति, मूर्तिमती, सद्विभूति, तुष्टि, पुष्टि, क्षमा, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा, परा, दया, निद्रा, शुद्धा, तन्द्रा, मूर्च्छा, संनति और क्रिया हो। मूर्ति और भक्ति तुम्हारी ही स्वरूपभूता हैं। तुम्हीं देहधारियों की देह हो; सदा मेरी आधारभूत हो और मैं तुम्हारा आत्मा हूँ। इस प्रकार हम दोनों एक दूसरे के शरीर और आत्मा हैं। जैसी तुम, वैसा मैं; दोनों सम-प्रकृति-पुरुषरूप हैं। देवि! हममें से एक के बिना भी सृष्टि नहीं हो सकती। नारद! इस प्रकार परमप्रसन्न परमात्मा श्रीकृष्ण ने प्राणाधिका प्रिया श्रीराधा को हृदय से लगाकर बहुत समझाया-बुझाया। फिर वे पुष्प शय्या पर सो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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