ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 44-46
मुनि ने कहा– साध्वि! मैं सुखपूर्वक सो रहा था; तुमने मेरी निद्रा क्यों भंग कर दी? जो स्त्री अपने स्वामी का अपकार करती है, उसके व्रत, तपस्या, उपवास और दान आदि सभी सत्कर्म व्यर्थ हो जाते हैं। स्वामी का अप्रिय करने वाली स्त्री किसी भी सत्कर्म का फल नहीं प्राप्त कर सकती। जिसने अपने पति की पूजा की, उससे मानो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण सुपूजित हो गये। पतिव्रताओं के व्रत के लिये स्वयं भगवान श्रीहरि पति के रूप में विराजमान रहते हैं। सम्पूर्ण दान, यज्ञ, तीर्थ सेवन, व्रत, तप, उपवास, धर्म, सत्य और देवपूजन– ये सब-के-सब स्वामी की सेवा की सोलहवीं कला की भी तुलना नहीं कर सकते। जो स्त्री भारतवर्ष-जैसे पुण्य क्षेत्र में पति की सेवा करती है, वह अपने स्वामी के साथ वैकुण्ठ में जाकर श्रीहरि के चरणों में शरण पाती है। साध्वि! जो असत्कुल में उत्पन्न स्त्री अपने स्वामी के प्रतिकूल आचरण करती तथा अपने स्वामी के प्रति कटु वचन बोलती है, वह कुम्भीपाक नरक में सूर्य और चन्द्रमा की आयुपर्यन्त वास करती है और पति एवं पुत्र के सुख से वंचित रहती है। यों कहकर वे चुप हो गये। तब साध्वी मनसा भय से काँपने लगी। उसने पतिदेव से कहा। साध्वी मनसा ने कहा– उत्तम व्रत का पालन करने वाले महाभाग! आपकी संध्योपासना का लोप न हो जाये, इसी भय से मैंने आपको जगा दिया है– यह मेरा दोष अवश्य है। इस प्रकार कहकर देवी मनसा भक्तिपूर्वक अपने स्वामी जरत्कारु मुनि के चरण-कमलों में पड़ गयी। उस समय रोष के आवेश में आकर मुनि सूर्य को भी शाप देने के लिये उद्यत हो गये। नारद! उन्हें देखकर स्वयं भगवान सूर्य संध्यादेवी को साथ लेकर वहाँ आये और भयभीत होकर विनयपूर्वक मुनिवर जरत्कारु से सम्यक प्रकार से यथार्थ बात कहने लगे। भगवान सूर्य ने कहा– भगवन! आप परम शक्तिशाली ब्राह्मण हैं। संध्या का समय देखकर धर्मलोप हो जाने के भय से इस साध्वी ने आपको जगा दिया। मुने! विप्रवर! मैं आपकी शरण में उपस्थित हूँ। मुझे शाप देना आपके लिये उचित नहीं है। ब्राह्मणों का हृदय सदा नवनीत के समान कोमल होता है। ब्राह्मण चाहें तो पुनः सृष्टि कर सकते हैं; इनसे बढ़कर तेजस्वी दूसरा कोई है ही नहीं। ब्रह्मज्योति ब्राह्मण के द्वारा निरन्तर सनातन भगवान श्रीकृष्ण की आराधना होती है। सूर्य के उपर्युक्त वचन सुनकर विप्रवर जरत्कारु प्रसन्न हो गये। उनसे आशीर्वाद लेकर सूर्य अपने स्थान को चले गये। प्रतिज्ञा की रक्षा के लिये उन ब्राह्मण देवता ने देवी मनसा का त्याग कर दिया। उस समय देवी के शोक की सीमा नहीं रही। दुःख के कारण उनका हृदय क्षुब्ध हो उठा था। वे रो रही थीं। उस विपत्ति के अवसर पर भय से व्याकुल होकर उस देवी ने अपने गुरुदेव शंकर, इष्टदेवता ब्रह्मा और श्रीहरि तथा जन्मदाता कश्यप जी का स्मरण किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |