नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. प्रस्तावना
वस्तुत: जीव किसी कर्म का कर्त्ता नहीं है; किन्तु अहंकार से मूर्च्छितप्राय होकर प्रकृति के गुणों से हुए कार्यों को वह अपने में आरोपित करके अपने को कर्त्ता मान लेता है। यह मान लेने के कारण ही कर्म के शुभाशुभ फल का वह भोक्ता बन जाता है। जो महेश्वर है, प्रकृति का संचालक है, वही वास्तविक भोक्ता है। लेकिन वह इस शरीराभिमानी जीव का भर्ता है- इसका भरण-पोषण वही करता है, अत: जब अज्ञानी जीव अपने को कर्त्ता मान लेता है, तब वह इसकी मान्यता का अनुमोदन कर देता है। वह अनुमन्ता बना रहता है।
यह शरीर क्षेत्र है। इसमें पाप-पुण्य की खेती होती है और उससे सुख-दु:ख उत्पन्न होते हैं। इस शरीर को जो अपना जानता है, वह क्षेत्रज्ञ है; किन्तु वास्तविक क्षेत्रज्ञ प्रति शरीर भिन्न जीव नहीं है। वह सब क्षेत्रों में एक ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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