नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
10. नन्द बाबा-श्रीकृष्ण-जन्म
मैं किसी को कहूँ- इतना सावधान कहाँ था। स्वयं ही दौड़ा; किंतु महर्षि सर्वज्ञ हैं। असीम स्नेह है उनका मुझ पर। वे ब्राह्ममुहूर्त से पूर्व ही उठकर चल पड़े थे। मेरे देहली पार करते ही उनके दर्शन हुए। उन्होंने अपने शिष्यों को, सब बाह्मणों को, मुनि-महर्षियों को सम्वाद देने भेज दिया था। मुझे तो उन्होंने प्रणिपात करने से भी पूर्व आदेश दिया-शीघ्र यमुना-स्नान कर आओ! मैं स्नान करके आया तो बड़ी भाभी तु्ंगी ने प्रसूति-कक्ष के द्वार पर पहुँचते ही अपने करों पर लेकर उस नवजात को मेरी ओर बढ़ा दिया। वही अतसी-कुसुम-सुकुमार-वही अलकावली-आवृत्त मुख, वही, वही तो है। मैं तो उसे देखते ही अपने आपको विस्मृत हो गया। बड़े भाई उपनन्दजी ही जानते होंगे कि पूजन कैसे हुआ। नान्दीमुख श्राद्ध कैसे हुआ। वे ही मुझसे सब कराते रहे। मुझे किञ्चित स्मरण है कि किसी स्वर्णपात्र में से अनामिका पर तनिक-सा मधुमिश्रित धृत लेकर मैंने इस सकुमार के अधरों पर लगाया और इसने मेरी अनामिका ही मुख में ले ली। वह स्पर्श-उस अमृत स्पर्श को वाणी नहीं ही बता सकती। मुझे तो पीछे बड़े भाई ने बतलाया है कि मुझसे बड़ी कठिनाई से महर्षि ने नवजात शिशु के दक्षिण कर्ण में मन्त्रोच्चारण कराया। उसके शरीर पर तो मेरा कम्पित कर पकड़कर भाई ने किसी प्रकार फिरा दिया। 'स्वयं महर्षि का स्वर गद्गद् हो रहा था।' बड़े भाई उपनन्दजी कहते हैं- 'उनके करों में कम्पन्न था। तुम तो चेतना में नहीं ही थे, मैं भी कठिनाई से अपने को सावधान बनाये था। पाँच महर्षियों ने प्राणोच्चारण किया; किंतु स्वर सबके आज भाव-भरे थे।' किसी प्रकार यह जातकर्म-नान्दीमुख श्राद्ध सम्पन्न हुआ। शिशु पुन: सूतिकागार में गया तो सबकी रही-सही सुधि-बुधि भी समाप्त हो गयी। फिर तो गोप और गोपियों ने नृत्य करना-गायन और परस्पर नवनीत दधि-दुग्ध दरिद्रा-मिश्रित जल का निक्षेप प्रारम्भ किया। मैं कब-तक नाचता रहा-कितना दधि, दूध, या सुगन्धित जल मुझ पर पड़ा-मुझे कुछ पता नहीं है। |
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