नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
71. श्रीकृष्ण-श्रीराधा-विवाह
'देव! आज आप दोनों का विवाह मुहूर्त है।' सहसा आकाश में आलोक हुआ। विशाल उज्ज्वल हंस उतरा भूमि पर और उसके ऊपर से उतरकर चतुर्मुख अरुणवर्ण सृष्टिकर्त्ता हम दोनों के सामने दण्डवत प्राणिपात करने के अनन्तर अपने हाथ जोड़कर विनम्र खड़े हो गये। मैंने अपने प्राणाधि का सर्वेश्वरी की ओर हँसकर देखा। ब्रह्माजी मुझे अत्यन्त प्रिय लगे। परमप्रिय लगा उनका प्रस्ताव। आषाढ़ के इस प्रारम्भ में सर्वोत्तम मुहूर्त विधाता ने शोध लिया है तो उनको स्वीकृति मिलनी चाहिए। श्रीराधा ने किञ्चित लज्जापूर्वक स्मित से स्वीकृति सूचित कर दी। इस स्वीकृति का एक अर्थ तो था ही कि तत्काल हम दोनों अपने इस बालरूप से बिना कहीं किञ्चित भी विराम किये चलते गये। विवाह के उपयुक्त अपना नित्य किशोर रूप हमने यहाँ धारण कर लिया; किंतु निकुंजलीला पार्थिव लीला तो नहीं है। पृथ्वी पर प्रकट हुआ यह अवतार रूप- इसकी तो प्रतीक्षा हो रही होगी। कीर्तिमय्या अपनी लाली को न पाकर अब तक बहुत उद्विग्न हो उठी होगी और दादा के लौटने से अब तक मेरी मैया द्वार पर ही खड़ी होगी। यह अनुमान नहीं था मेरा। मैंने देखा कि वृषभानु बाबा स्वयं अपनी लीला को ढूँढ़ने निकलने ही वाले थे। बाबा ने हमें देखा तो मैंने कह दिया- 'मैं बाबा के साथ था। बाबा ने इनको बुलाकर मेरे साथ भेज दिया इनको।' वृषभानु बाबा हँसे- 'नन्दराय वृद्ध हो गये; किंतु अब भी भोले ही हैं। बालक को अंधकार होने तक वन में भला कोई रहने देता है।' उनकी लीला तो अन्तःपुर में चली गयीं। बाबा ने बहुत आग्रह किया कि मैं व्यालू कर लूँ; किंतु मैंने कह दिया- 'मैया मेरा मार्ग देखती होगी।' बाबा ने मुझे अपने विशेष सेवक के साथ भेज दिया। मैया द्वार पर ही खड़ी मिली मुझे। द्वार पर ही माँ भी मिलीं और दादा भी भद्र के साथ मेरा मार्ग देखता खड़ा था। ब्रह्माजी के संकेत से ही मेघ गगन में आये होंगे, यह बात तो स्पष्ट थी। हम दोनों की स्वीकृति पाकर वे सृष्टिकर्त्ता प्रसन्न हो गये। हम कालिन्दी कूल के समीप एक सघन कुञ्ज में आये अपने नित्य किशोर रूप में। जो अपने संकल्प से सृष्टि बनाया करते हैं, उनको हमारे विवाह की सामग्री प्रकट कर देने के लिये हमारी सहायता अपेक्षित नहीं थी। |
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