नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
66. देवराज इन्द्र-गोविन्दाभिषेक
'तू श्रीकृष्ण से भी भय करता है? छिः!' सुरभि ने मुझे झिड़क दिया- 'कृपार्णव कृष्ण प्यार करने के लिये है या भय करने के लिये? जिसे किसी का कोई अवगुण-अपराध कभी देखना आता ही नहीं, तू उसके सम्मुख पहुँचने में भी कातर होता है? ऐरावत पर बैठ? मैं साथ चल रही हूँ।' आदेश के उल्लंघन की अशिष्टता अशक्य थी। मैं किसी प्रकार ऐरावत पर बैठकर चल पड़ा। मेरा ऐरावत इतना अल्पकाय लगा, जैसे भगवती सुरभि का सद्यःजात शिशु हो। इससे मैं ऐरावत-सहित उन तेजोमयी के पीछे सरलतापूर्वक छिपता आ सका। 'वह बैठा है मेरा गोपाल!' सहसा सुरभि देवी ने मेरी ओर मुड़कर कहा- 'अब तू उसके समीप चला जा और क्षमा माँग ले। मैं तब तक अपनी सन्तानों से मिल लेती हूँ। यह ऐरावत इतने में अपनी आठों सूँड़ों में अमरावती से स्वर्णघट लेकर आकाश-गंगा का जल भर लावेगा!' श्रीसंकर्षण के साथ सब गोप-बालक कुछ दूर थे। एकाकी श्रीकृष्णचन्द्र सम्भवतः मुझे समय देने चले आये थे और एक शिला पर विराजमान थे। इन व्रजेन्द्र-नन्दन का सस्मित श्रीमुख देखते ही मेरा सम्पूर्ण भय समाप्त हो गया। मैं ऐरावत से सीधे पृथ्वी पर इनके सम्मुख दण्ड की भाँति गिरा। मैंने समीप जाकर अपने किरीट से इन परम-पुरुष के पादपद्मों का स्पर्श किया, साश्रुकण्ठ स्तुति की, क्षमा माँगी, सुनते रहे सर्वेश्वर जैसे शिशु की वाणी पिता सुनता हो। अन्त में बोले- 'पुरन्दर! तुम तो बहुत अच्छे हो। मेरे सब व्रज के लोगों को तुमने इतने समय मेरे समीप एकत्र रखा!' यह कृपा! यह अपराध को भी आराधना मानने वाला शील और मैं अधम इनसे भय कर रहा था। मैं कुछ कहता, इससे पूर्व देवी सुरभि आ गयीं। सहसा उठकर गोपाल ने उन्हें प्रणिपात किया। अब मैंने देखा कि शिलातल पर पहिले से पूजन-सामग्री रखे बैठे थे। नारिकेल-पात्र उठाकर अर्घ्य दिया। पदों पर, श्रृंग पर जल डाला और पुष्पाञ्जलि देकर पुनः प्रणिपात किया। 'अब शिलातल पर बैठकर गायों के इन्द्र पद पर अपना अभिषेक करा लो!' सुरभि ने मेरी ओर सस्नेह देखा- 'इस इन्द्र पर मैं अपनी सन्तानों का दायित्व नहीं छोडूँगी। ब्रह्माजी ने भी यही हम दोनों को कहा है।' 'आपकी आज्ञा ही पर्याप्त है!' श्रीकृष्णचन्द्र ने अञ्जलि बाँधकर, सिर झुकाया। पटुका, वनमाला, मयूरपिच्छ उतारकर पृथक धर दिये और शिलातल पर विराजमान हो गये। देवी सुरभि आकाश में ठीक उनके ऊपर इस प्रकार हो गयीं कि उनके चारों स्तनों से झरती दुग्धधारा श्रीकृष्णचन्द्र को सिञ्चित करने लगी। ऐरावत ने मुझे अवसर नहीं दिया, यह उत्तम ही हुआ। वह आठों सूड़ों से आकाशगंगा का जल स्वर्ण घटों में लाया था। उससे स्नान कराने लगा। मैंने इस सुयोग का लाभ उठाकर वह स्नानोदक अञ्जलि भरकर पी लिया। सुधा में ऐसा स्वाद कहाँ; किंतु हँसकर पुरुषोत्तम ने रोक दिया- 'बस!' |
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