नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
65. महर्षि पुलस्त्य-गोवर्धन-धारण
चरणों में नूपुर, कटि में पीत कछनी, नाभिका गम्भीर ह्रद, वक्ष पर लहराती वनमाला, मुक्तामाल के मध्य झाँकता श्रीवत्स, कम्बुकण्ठ में कौस्तुभ, विशाल स्कन्धों पर पड़ा पीतपट, स्मित-शोभित अरुण अधर, उन्नत नासिका, अनन्त कृपापूरित किञ्चित अरुणाभ विशाल लोचन, वंकभृकुटि, तिलकांकित भाल, अलक-जाल पुष्पमाल-मण्डित मयूरपिच्छभूषित और ये भवभयहारी रत्नांगद-मण्डित विशाल भुजदण्ड- मैं देखता रह गया इस छटा को। 'कनूँ! तू थक गया होगा। ये पर्वत भद्र या श्रीदाम को दे दे।' तोक ने दक्षिण कर पकड़कर हिलाया- 'दूसरे को नहीं तो दाऊ दादा को दे दे।' बालक ठीक बात कहता है। जिनके एक फण पर पृथ्वी प्रलय पर्यन्त टिकी रहती है, उनको इस नन्हें पर्वत को उठाना भारी नहीं पड़ सकता। वे तो समीप ही खड़े प्रतीक्षा कर रहे हैं कि अनुज का संकेत हो और सम्हाल लें। 'तुझे ही उठाये रहने की हठ है तो उठाये रह!' भद्र ने आकर कहा- 'लेकिन पर्वत अब दाहिने हाथ पर ले ले तो हम तेरे वाम बाहु को तनिक दबा दें।' 'तू मेरी मुरली दे पहिले मुझे!' व्रजराजकुमार की माँग उचित है। यहाँ सबको पता नहीं कब तक ऐसे ही रहना है। क्षुधा-पिपासा-निद्रादि सबको विस्मृत करा देने की शक्ति तो इनकी वंशी-ध्वनि में ही है। वंशी बजने लगी और उसके अमृतनाद में मैं स्वयं सब विस्मृत हो गया। उस सुधा-संगीत ने जब विराम किया मैं ऊपर आ सका देखने कि इन्द्र का क्या हुआ। मुझे भी काल का पता पाने के लिये मनःसंयम करके सर्वज्ञता का सहारा लेना पड़ा। सात दिन, सात रात्रियाँ व्यतीत हो गयी थीं और सात पल भी प्रतीत नहीं हुए। प्रलयमेघ श्वेत वारि-विहीन शक्र के सम्मुख सिमट आये थे और सिसक रहे थे- 'देव! एक सीकर जल नहीं हमारे समीप। कोई सम्भावना नहीं कि वह वाष्प बनकर पुनः प्राप्त होगा। पुरारि की जटाएँ सब पी गयीं।' 'पुरारि की जटाएँ?' अब इन्द्र चौंका। उसने नीचे देखा और भयभीत हो उठा- 'मुझसे परम पुरुष का अपराध हो गया? भवानीनाथ उस पुरुषोत्तम के अतिरिक्त अन्य के कारण तो नहीं आते। वह श्रीहरि का महाचक्र?' |
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