नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
64. बहिन अजया-गोवर्धन-पूजन
बस निर्णय हो गया। महर्षि ने मान लिया तो कोई और क्या कहेगा। मैं घर भागी मैया को, सब भाईयों को यह समाचार पहुँचाने। मुझे क्या पता था कि ये सब पहिले से सम्मति करके आये थे। अर्जुन भैया ने कहा- 'यह तो वन में ही कन्हाई ने कह दिया था कि वह इन्द्र की पूजा नहीं होने देगा। इन्द्र हमारी गौओं से भी बड़ा देवता हो गया कि गायें बिचारी बँधी रहेंगी दिन भर और इन्द्र पूजा पावेगा।' मेरे कन्हैया भैया ने कितने भारी सुन्दर सदेह देवता का पता लगाया, यह आज सब स्वीकार करते हैं। किसी को कहाँ गिरिराज का पता था। आज सबेरे ही छकड़ों में भरकर सामग्री ढोयी जाने लगी। रातभर मैया लगी रही अनेक व्यञ्जन बनाने में, यह वह कहती थी। मैंने कहा- 'तू सोयी क्यों नहीं, थोड़ा कम बना लेती।' 'सब गोपियाँ रातभर लगी रही हैं।' मैया ने कहा- 'तेरे बाबा व्रजराज के छोटे भैया हैं। मैं कम बनाती तो सब मेरा नाम धरतीं। देवरानी-जेठानी सब कहतीं कि कुबला कृपणा हो गयी है।' मैया ने स्नान किया। सबसे सुन्दर साड़ी पहिनी और अपने सब आभूषण पहिन लिये। अपनी चोटी की। उसमें मल्लिका की माला लगायी। बाबा घर में आया तो हँसकर बोला- 'तुम जो आज ऐसी सजी हो जैसे पहिले दिन इस घर में आयी थीं। 'चलो! बच्चों के सामने तो सोचकर बोला करो।' मैया का मुख लाल हो गया। मैं ताली बजाकर हँसने लगी। मैया ने अर्जुन और अंशु भैया को पहिले स्नान कराके भली प्रकर सजा दिया था। वे दोनों चले गये थे। बाबा भी आज आभूषण पहिने था। पगड़ी में हीरे की कलंगी लगाये था। कञ्चुक पहिना था उसने और बड़ा कामदार जड़ाऊ उत्तरीय डाले था। मैया ने सबसे पीछे मुझे स्नान कराया। मेरी पाटल स्वर्णजटित साड़ी पहिना दी। चोटी की और तब इतने आभूषण पहिनाये कि मैं तो उनसे लद गयी। बाबा हम सबको छकड़े में बैठाकर ले गया। आाज तो बैल, गायें भी सजाये गये थे। सबके श्रृंग, खुर स्वर्ण मढ़े और गलों में मोतियों की माला। मैं वहाँ पहुँचते ही कन्हैया भैया के पास दौड़ गयी। सब बरसाने के उसके सखा भी साथ थे। वहाँ से सुबल मुझे अपनी बहिन के पास ले गया और जब राधा मिल जाय, मुझे छोड़ती ही नहीं। मैं भी उसकी सखियों में मिलकर दिनभर उसके साथ ही रही। |
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