ब्राह्मण हूँ- माँगना स्वभाव है- न जायेगा-
ऐसा अवसर अंगिरा के जीवन में न आयेगा।
इतना उदार दाता, अमित दाता अनुकूल-
देकर भी जो सलज्ज मुख नीचे करे सानुकूल।
देकर भी जो स्वीकार करे- 'मैंने लिया।
जिसकी अनुभूति- 'कभी मैंने कुछ नहीं दिया।'
मणि दे हँसकर कहे- 'तेरे पत्थर गले बाधूँगा।
तू करे ना-नू तो बलात् तुझे साधूँगा।'
अमृत सुधा भक्ति दे और समझे- 'मैंने ठगा।
यही रहा भोला मैं सर्वदा रहा जगा।'
कृष्ण कृपासिन्धु ऐसा उससे न मागूँ-
मँगूँगा कहाँ- अतः मंगन मैं, मागूँगा-मूँग-
'श्याम! तुम्हारी कृपा रहे- न रहे।
करुणा इन गोपबालकों की बनी रहे!'
यह क्या- मैं यहाँ आ काव्य करने लगा?
आया था देखने अब तक रहा ठगा।
क्या आश्चर्य कृष्ण-क्रीड़ा चिन्तन स्वतः काव्य।
व्रज का माहात्म्य मुझ महर्षि को भी दुर्विभाव्य।