नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. यमराज-अघोद्धार
'हम सब इसमें छिप जायँ तो?' नन्हे तोक ने कहा- 'बछडे़ भी भीतर हाँक दें। कनूँ ढूँढे़गा। हम सबको। बड़ा आनन्द आयेगा।' 'कहीं यह सचमुच का सर्प ही हुआ?' देवप्रस्थ ने शंका की- 'हम सबको भीतर जाने पर खा ही जायेगा।' 'डर लगता है तुझे? वह नाच रहा है मयूर के साथ अपना कन्हाई।' तेजस्वी हँसा- 'तूने देखा नहीं कि कितने बड़े बगुले को चीर फेंका उसने। यह सर्प भी हुआ और हमें खाने लगा तो श्याम इसे मारे बिना छोड़ेगा?' देवप्रस्थ शंका न करता तो सम्भव था कि बालक दुर्गन्धित गुफा में न भी जाते; किंतु देवप्रस्थ की शंका ने सबको उत्तेजित कर दिया। तेजस्वी ने बछडे़ हाँक दिये भीतर और सबके सब ताली बजाते हँसते दौड़ पड़े। केवल पीछे देखकर पुकारा उन्होंने- 'कनूँ!' मैं चौंक गया। प्रमाद हुआ मुझसे। ये बालक जब इस अघासुर के मुख को गुफा मानकर चर्चा कर रहे थे, मुझे इसे मार देना था। मेरा अमोघ काल-दण्ड स्मरण करते ही करों में आ जाता; किंतु अब तो वह भी व्यर्थ है। इस अजगर के मुख में पहुँच गये बछडे़ और बालक। अब इस पर आघात नहीं किया जा सकता। चौंक गये नन्दनन्दन भी मेरे समान ही। बालकों की ताली सुनकर मुड़कर देखा और पुकार उठे- 'अरे नहीं! नहीं!' लेकिन हँसते-ताली बजाते बालकों ने कहाँ सुनी इनकी पुकार। पाप के द्वारा प्रलुब्ध प्राणी कहाँ सुन पाता है इसमें प्रविष्ट होते समय इन हृषीकेश अन्तर्यामी की पुकार। ये पुकारने में तो प्रमाद नहीं करते। सामान्य प्राणी को पचा सकता है पाप; किंतु ये श्रीकृष्ण के स्वजन- मैंने देखा कि इन सर्वेश्वर का सदा प्रफुल्ल मुख गम्भीर हो गया। ये भी मुडे़ और पर्याप्त शीघ्रतापूर्वक अघ के मुख में प्रविष्ट हो गये। बस समाप्त- पुरुषोत्तम के पहुँचने पर कोई अघ-अघ नहीं रहा करता। अघासुर प्रतीक्षा कर रहा था। बालकों-बछड़ों के मुख में जाने पर भी इसने मुख बन्द नहीं किया। मधुसूदन के मुख में आने की प्रतीक्षा कर रहा था। यह दूसरी बात है कि बालक-बछडे़ सब भीतर पहुँचते ही असह्य ऊष्मा तथा दुर्गन्धि से मूर्च्छित होकर गिर पड़े। गोपाल के गले में पहुँचते ही मुख बन्द करना चाहा सर्प ने; किंतु अब क्या यह उसके वश की बात थी? जो क्षणार्ध में वामन से विराट बन जाते हैं उन्होंने अपने शरीर को ऐसा गोल, बड़ा कर लिया कि सर्प के सब श्वास-मार्ग अवरुद्ध हो गये। वह अपनी पूँछ पटकता ऐंठने लगा। |
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