नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
52. देवी दुर्गा-व्योम-वध
'इसने उस दुष्ट को मार दिया। वह तो बड़ा भारी राक्षस था। वहाँ थोड़ी दूर पर पड़ा है उसका लोथड़ा।' तो कूद-कूद कर बतलाने लगा है कि उसके कन्हाई ने राक्षस को कैसे मारा। 'यह बहुत निष्ठुर है!' भद्र को अब भी सखा का वह क्रोध भूलता नहीं है- 'बेचारे राक्षस को इसने बहुत तड़पा-तड़पा कर मारा।' गोप कुमारों की सुकुमार दृष्टि में वह फटा, विकृत दानव देह क्यों आये? मेरे केशरी ने शीघ्रतापूर्वक उसे सार्थक कर दिया। अन्तत: श्रीकृष्ण ने जिसे स्वयं मारा, उसके देह को श्रृगाल, गीध, काक नोचकर खायें- यह तो नहीं हो सकता था और अपने अग्रज के आखेट पर तो अनुजा का अधिकार है ही। 'तुम सब इसको अंकमाल देकर अपवित्र हो गये! सबके शरीरों में असुर का रक्त लग गया। अब सब स्नान करके शुद्ध बनो।' मधुमंगल ऐसे अवसरों पर महापण्डित बन जाया करता है। मुझे यहाँ से कहीं जाना तो है नहीं; किंतु दानवेन्द्र मय को सुसमाचार दे देना है कि उसके पुत्र का आसुरी योनि से उद्धार हो गया। वह परम शैव इससे प्रसन्न होगा। |
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