नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
51. रंगदेवी-तुलसी-पूजन
'मैया! तेरी यह राधा मान ले तो हम सब मान लेंगी।' मैया के लिए तो हम सब समान हैं। वह हँसती रही हैं सदा सुनकर और उनकी यह बात हममें-से किसी के कण्ठ में उतरने से रही कि उनकी राधा के उठ जाने पर भी हम पड़ी सोती रहें। हमें तो इससे पहिले शीघ्रता करनी रहती है, अन्यथा यह उठकर उलटे हमारी सेवा करने लगेगी। यह हमारे लिए दन्तधावन, तैल, उपलेप प्रस्तुत करने में लग जायगी, और दासियों को संकेत से दूर कर देगी। यह अपने लिए भी कुछ करने योग्य तो है नहीं। सूर्योदय से पूर्व स्नान करके तुलसी के समीप इसके साथ हम सबको पहुँच जाना ही है। अब इसने अपनी पूजा के लिए पृथक तुलसी का वीरुध आरोपित कर लिया है। मैया के साथ अब उनके ही वीरुध की पूजा नहीं करती। मैया को कहाँ अवकाश है दोपहर तक इसके साथ पूजा में लगे रहने का। यह तो पूजा करने में ही पूरा प्रहर व्यतीत कर देती है और फिर ध्यान करने बैठती है, जप करती है। मैया की बात मैं बालिका होने पर भी समझती हूँ। इतनी अल्वपय में इतनी पूजा अनावश्यक है। यह कुसुम कलेवर आतप में कितना वरुण हो जाता है। क्या हुआ कि शरद ऋतु का अन्तिम मास चल रहा है, शीत प्रारम्भ हो चुका है; किंतु मेरी सखी क्या सूर्य-रश्मि सहन करने योग्य है? यह लगभग चार वर्ष की आयु क्या तपस्या करने की आयु है? यह तप, यह पूजा किसलिए? मेरे मन में उत्सुकता हुई और इसे सखियों से छिपाना कहाँ आता है। मैया भी मना नहीं कर पाती, वे भी इसकी तन्मयता, तत्परता में बाधा डालने में हिचकती हैं और उनकी बात ठीक है कि यह म्लान बनी रहे, दिन-दिन सूखती जाय, कुछ भी आहार लेना बन्द करके प्राय: नेत्रों में अश्रु भरी रहे, इससे अच्छा है कि पूजा में ही लगी रहे। |
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