नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. महर्षि जाजलि-बकोद्धार
मैं इन श्रीनन्दनन्दन की क्रीड़ा-दर्शन में निमग्न सरोवर के समीप झुक आयी लताओं की ओट में छिपा देख ही नहीं सका कि महाबक बना वह दैत्य उत्कल कब आकर लगभग मेरे समीप ही जल के तट पर आ बैठा। मैंने तो इसे तब देखा जब बालकों के साथ, अग्रज के साथ चलते श्यामसुन्दर बछड़ों को जल पिलाने आये सरोवर के समीप और बछड़े अकस्मात भागने लगे भयभीत होकर। गोप-बालकों ने पूरे हिम-शिखर के समान विशाल बक को देखा। उनका भयातुर होना स्वाभाविक था। सब जहाँ के तहाँ बगुले की ओर सभीत देखते खडे़ रह गये। केवल कृष्णचन्द्र भाई के समीप से कुछ पद आगे दौड़ आये! जैसे वे इतने बड़े बगुले को निकट से देखने को उत्सुक हों। उत्कल अकस्मात नहीं आया था। वह अपनी बहिन पूतना का परिशोध लेने कंस की प्रेरणा से ही पहुँचा था। इतने बड़े बक को श्रीकृष्ण तक पहुँचने में केवल दो डग धरने पड़े। पहुँचते ही चोंच बढ़ाकर नन्दनन्दन उसने 'टप' उठा लिया अपनी चोंच में। मुझे पता था कि क्या होने वाला है। मैं जानता था कि दम्भ जब स्वयं सर्वेश्वर को निगलकर उनका स्थान लेने जाता है, मृत्यु-भस्म होना ही उसका निश्चित परिणाम है; किंतु मेरा यह ज्ञान उस समय कहाँ चला गया, कह नहीं सकता। असुर को शाप देकर भस्म कर सकता हूँ, यह भी स्मरण नहीं रहा। जैसे किसी अल्पप्राण प्राणी को धधकते दावानल में फेंक दिया जाय- मन, प्राण सब जैसे दग्ध हो उठे। केवल दृष्टि ने देखा- बछडे़, गोप, बालक सबके शरीर जैसे निष्प्राण हो गये। रक्तहीन, श्रीहीन, श्वेत और स्पन्दन-रहित। केवल भगवान संकर्षण का श्रीमुख अरुण हो उठा था। नेत्र, अंगार उगलने लगे थे। वे कुछ अघटित करने ही वाले थे। पलकों के गिरने में जितना समय लगता है, उसका भी अर्धकाल- बक छटपटा उठा। जैसे अपने तप्तांगार मुख में उठा लिया हो, इस व्याकुलता से उगल दिया उत्कल ने श्रीकृष्ण को। अपनी चोंच खोलकर- पूरी खोलकर श्वांस ली उसने। ग्रीवा को झटका दिया दो बार इधर-उधर और फिर पूरी ग्रीवा पीछे करके चोंच की चोट करने टूटा। |
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