नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. उर्वशी-ऊखल-बन्धन
दूध में उफान आ रहा था और हममें-से एक की दृष्टि भी उधर नहीं गयी। यही दूध तो ये व्रजराजकुमार पीते हैं। यह उफन कर गिर जाय तो दूसरी गौ के दूध को मुख भी नहीं लगावेंगे। ये भूखे रह जायँगे इस दूध के बिना और हममें सब इनकी ओर देखने में प्रमत्त हो गयीं। दूध तो मैया उतार देंगी अब; किंतु इनको इस प्रकार माता द्वारा अंक से उतारा जाना कैसा लगा होगा? ओह, इनका तो मुख अरुण हो गया है। नन्हें अधर फड़कने लगे हैं। इन्होंने दाँतों से अधर दबा लिया है। क्रोध के कारण बड़े-बड़े बिन्दु विशाल दृगों से कपोलों पर आ गिरे हैं। दोनों मुट्ठियाँ बाँधकर खड़े हो गये हैं। मैं भय से काँप उठी; किंतु भगवती ने हँसकर कर पकड़ा- 'तू डरती क्यों है? यहाँ ये कोई बड़ा उत्पात कर नहीं सकते!' इधर-उधर देखकर मन्थन-भाण्ड के नीचे जो उसे सीधा रखने को पाषाण लगाया था मैया ने, उसे बैठकर दोनों हाथों से निकाल लिया। उठ खड़े हुए उसे लेकर। दोनों हाथों में पूरा ऊपर उठाकर पाषाण पटक दिया दधि-भाण्ड पर। भड़ाम! भारी शब्द हुआ और माखन, छाछ सब पूरे कक्ष में फैल गया। मुझे हँसी आयी- 'इन्हें क्षीरोदधि रूचता है। अब कक्ष कुछ वैसा हो गया।' लेकिन दो क्षण फूटे भाण्ड की ओर देखते रहे और फिर उस छाछ में छपाछप करते भागे। छाछ-दधिमाण्ड कहना अधिक उपयुक्त है उस गाढ़े छाछ को। उसके द्वारा अंकित इनके चरण-चिह्न! ये ब्रज, अंकुश, ध्वज, कमल, स्वस्तिक के चिह्न! मैंने एक चिह्न से तनिक छाछ अंगुली से उठाकर मुख में लिया। देवी शारदा समीप आ गयीं। इस बार रोकने के स्थान पर मेरा अनुकरण किया उन्होंने; किंतु हमें शीघ्र एक ओर हट जाना पड़ा। मैया दूध उतारकर लौटी। भाण्ड फूटने का शब्द उसने सुन लिया था। कक्ष में फैला छाछ, नवनीत देखा और इधर-उधर देखकर हँस पड़ी- 'यह बहुत ऊधमी हो गया!' मैं अमरांगना हूँ। अमृत पान किया है मैंने। नारायण की संकल्पोद्भवा होने से भी दिव्या हूँ; किंतु मैया हँसी न होती तो उसे साटिका उठाते देखकर भय से अवश्य मर जाती। मैया के हास्य ने आश्वस्त कर दिया कि अपने सुकुमार लाल को वह किञ्चित भीत ही करना चाहती है, मारेगी नहीं। |
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