नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. तुम्बरू-वेणु-वादन
प्रकृति नीरव है। भृंग, मक्षिका तक का कोई स्वर कहीं नहीं। केवल वंशी का नाद- वंशी की ध्वनि गूँज रही है। सम्पूर्ण अन्तराल को गुञ्जित करती, अद्भुत आह्लादों में स्नात करती वंशी-ध्वनि गूँज रही है। सब शान्त, सब समाधिस्थ, सब आनन्द-निमग्न; किंतु यह अभागा तुम्बरू क्यों वञ्चित है? यह स्वर्ग का संगीत-शिक्षा-गुरु क्यों इस अद्भुत सुधा के स्पर्श से अछूता है? यही सर्वाधक अरसिक, पाषाण-हृदय है? पाषाण भी पिघलकर द्रव हो गये और तुम्बरू चकित-थकित केवल चारों ओर देख रहा है? देवर्षि! दयामय देवर्षि! आप कहाँ हो? आपने तो सृष्टि में सर्वत्र भक्ति भगवती के प्रचार की प्रतिज्ञा की है और आप जिसे सखा कहते हो, उसी का हृदय इतना शुष्क? मैं अमर न होता तो कहीं मस्तक पटककर मर जाता; किंतु कहाँ? कोई शिला तो इस समय ऐसी कठिन कहीं नहीं जिस पर सिर पटक सकूँ। इस समय तो केवल मेरा सिर, मेरा हृदय वज्र बना है। मैं अधिक सहने में असमर्थ हो गया। देवर्षि अपने पिता के पास होंगे, इस आशा में ब्रह्मलोक की ओर दौड़ा। मैंने देख लिया कि स्वर्ग के किसी को शरीर की सुधि नहीं है। सुरों ने नन्दन-कानन के कल्पतरु-सुमनों की अञ्जलि सजायी थी सम्भवत: व्रजराजकुमार के चरणों पर चढ़ाने के लिए; किंतु वे ज्यों-के-त्यों रह गये हैं। नृत्योद्यता अप्सराएँ, वाद्य उठाये किन्नर, गान को मुख खोले गंधर्व, सब मूर्त्ति के समान बन गये हैं। मुझे लगा- देवर्षि कहीं कैलाश चले गये हों तो? मैं उधर मुड़ गया; किंतु वहाँ मेरे संगीत-गुरु भगवान गंगाधर स्वयं भाव-समाधि में निमग्न थे। मैं भगवती शैल-सुता की चर्चा क्यों करूँ। भूत, भैरव, विनायक, प्रेत-पिशाच, योगनियाँ, भृंगी, नन्दी कोई तो मुझे सावधान मिलता। कोई तो ऐसा होता कि मैं उससे कुछ पूछता। सब स्थिर-निस्पन्द, सबके नेत्रों में अश्रुधारा, सबके शरीर पुलकपूरित। |
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