नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
90. भद्रसेन
'मैं कहाँ गया? तुम सबसे पृथक मैं कहीं जा सकता हूँ?' कन्हाई के विशाल नेत्र भर आये हैं- 'तुम्हीं सब मुझे छोड़कर यहाँ छिपे बैठे हो और मुझे किसी ने पुकारा तक नहीं, किसी ने पुकारा था मुझे?' सचमुच हममें-से किसी ने भी तो नहीं पुकारा था। ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि हम पुकारें और हमारा श्याम दौड़ता न आवे। 'तू कहाँ जा रहा है?' सुबल को यहीं दौड़ जाने को उद्यत देखकर गोविन्द ने पूछा। 'बहिन को बतलाने।' सुबल कहता ठीक है। वे बेचारी बालिकाएँ कहीं इसी नटखट को ढूँढ़ती भटकती होंगी। उन्हें शीघ्र सूचना मिलनी ही चाहिये। 'नहीं' कन्हाई की योजना ही भिन्न रहती है- 'मैं चुपके से पीछे से जाकर उसके नेत्र बन्द करूँगां।' सुबल हँस रहा है- 'जाकर देख। तू कहीं पास हो तो तेरे शरीर की, वनमाला की सुगन्धि तो मैं ही पहिचान लेता हूँ। बहिन बहुत दूर से जान लेगी। बहुत करके तेरा आगमन वह जान भी चुकी होगी। तूने वंशी तो बजायी थी। व्रज में कोई नहीं होगा जो तेरा पता न पा गया हो।' 'तू अभी झगड़ेगा?' श्रीदाम खुलकर हँस रहा है, अतः श्याम को शंका है कि इसकी किसी भूल पर वह चिढ़ाना चाहता है। 'मैं तो नहीं झगडूँगा; किंतु तू बहिन के पास जा तो सही। तुझे भी पता लगेगा।' मोहन का मुख सशंक हो गया है सुनकर। श्रीदाम सच कह रहा है। लड़कियाँ रूठी हो सकती हैं, यह मुझे भी सम्भव लगता है। 'मैया ने आज मेरे लिये माखन-मोदक बनाया है।' कन्हाई को अभी सखाओं से ही अवकाश नहीं है। यह मधुमंगल को चिढ़ाने लगा है। अँगूठा दिखाकर। 'मैया तेरे जैसी नहीं है, मधुमंगल उठकर भवन की ओर चल पड़ा है- 'मैया परम श्रद्धालु है। वह ब्राह्मण को भोजन कराये बिना अपने पुत्र को कुछ नहीं परसेगी। |
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