श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । अर्थ- जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता। व्याख्या- ‘यो मां पश्यति सर्वत्र’- जो भक्त सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पशु, पक्षी, देवता, यक्ष, राक्षस, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदि में मेरे को देखता है। जैसे, ब्रह्माजी जब बछड़ों और ग्वालबालों को चुराकर ले गए, तब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गए। बछड़े और ग्वालबाल ही नहीं, प्रत्युत उनके बेंत, सींग, बाँसुरी, वस्त्र, आभूषण आदि भी भगवान स्वयं ही बन गये[1]। यह लीला एक वर्ष तक चलती रही, पर किसी को इसका पता नहीं चला। बछड़ों में से कई बछड़े तो केवल दूध ही पीने वाले थे, इसलिए वे घर पर ही रहते थे और बड़े बछड़ों को भगवान श्रीकृष्ण अपने साथ वन में ले जाते थे। एक दिन दाऊ दादा (बलरामजी) ने देखा कि छोटे बछड़ों वाली गायें भी अपने पहले के (बड़े) बछड़ों को देखकर उनको दूध पिलाने के लिए हुंकार मारती हुई दौड़ पड़ी। बड़े गोपों ने उन गायों को बहुत रोका, पर वे रुकी नहीं। इससे गोपों को उन गायों पर बहुत गुस्सा आ गया। परंतु जब उन्होंने अपने-अपने बालकों को देखा, तब उनका गुस्सा शांत हो गया और स्नेह उमड़ पड़ा। वे बालकों को हृदय से लगाने लगे, उनका माथा सूँघने लगे। इस लीला को देखकर दाऊ दादा ने सोचा कि यह क्या बात है; उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो उनको बछड़ों और ग्वालबालों के रूप में भगवान श्रीकृष्ण ही दिखाई दिए। ऐसे ही भगवान का सिद्ध भक्त सब जगह भगवान को ही देखता है अर्थात उसकी दृष्टि में भगवत्सत्ता के सिवाय दूसरी किञ्चिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती। ‘सर्व च मयि पश्यति’- और जो भक्त देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि को मेरे ही अंतर्गत देखता है, जैसे, गीता का उपदेश देते समय अर्जुन के द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान अपना विश्वरूप दिखाते हुए कहते हैं कि चराचर सारे संसार को मेरे एक अंश में स्थित देख- ‘इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचाराचरम्।’ मम देहे[2]......., तो अर्जुन भी कहते हैं कि मैं आपके शरीर में संपूर्ण प्राणियों को देख रहा हूँ- ‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वास्तथा भूतविशेषसंङ्न्’।[3] संजय ने भी कहा कि अर्जुन ने भगवान के शरीर में सारे संसार को देखा- ‘तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा’।[4] तात्पर्य है कि अर्जुन ने भगवान के शरीर में सब कुछ भगवत्तस्वरूप ही देखा है। ऐसे ही भक्त देखने, सुनने, समझने में जो कुछ आता है, उसको भगवान में ही देखता है और भगवत्स्वरूप ही देखता है। ‘तस्याहं न प्रणश्यामि’- भक्त जब सब जगह मुझे ही देखता है, तो मैं उससे कैसे छिपूँ, कहाँ छिपूँ और किसके पीछे छिपूँ? इसलिए मैं उस भक्त के लिए अदृश्य नहीं रहता अर्थात निरंतर उसके सामने ही रहता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यावद्वत्सपवत्सकाल्पकवपुर्यावत्कराङ्ध्रूयादिकं यावद्यष्टिविषाणवेणुदलशिग्यावद्विभूषाम्बरम्।
यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो यावद्विहारादिकं सर्वं विष्णुमयं गिरोग्वदजः सर्वस्वरूपों बभौ ।। (श्रीमद्भा. 10।13।19)
‘वे बालक और बछड़े संख्या में जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर आदि जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सींग, बाँसुरी, पत्ते और छीके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, स्वभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार वे खाते-पीते, चलते आदि थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपों में सर्वस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उस समय ‘यह संपूर्ण जगत विष्णुरूप है’- यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी।‘ - ↑ 11।7
- ↑ 11।15
- ↑ 11।13
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज