श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
‘स च मे न प्रणश्यति’- जब भक्त भगवान को सब जगह देखता है, तो भगवान भी भक्त को सब जगह देखते हैं; क्योंकि भगवान का यह नियम है कि ‘जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं भी उसी प्रकार उनको आश्रय देता हूँ’- ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’।[1] तात्पर्य है कि भक्त भगवान के साथ घुल-मिल जाते हैं, भगवान के साथ उनकी आत्मीयता, एकता हो जाती है, अतः भगवान अपने स्वरूप में उनको सब जगह देखते हैं। इस दृष्टि से भक्त भी भगवान के लिए कभी अदृश्य नहीं होता। यहाँ शंका होती है कि भगवान के लिए तो कोई भी अदृश्य नहीं है- ‘वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि.......’[2], फिर यहाँ केवल भक्त के लिए ही ‘वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता’- ऐसा क्यों कहा है? इसका समाधान है कि यद्यपि भगवान के लिए कोई भी अदृश्य नहीं है तथापि जो भगवान को सब जगह देखता है, उसके भाव के कारण भगवान भी उसको सब जगह देखते हैं। परंतु जो भगवान से विमुख होकर संसार में आसक्त है, उसके लिए भगवान अदृश्य रहते हैं- ‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य’।[3] अतः (उसके भाव के कारण) वह भी भगवान के लिए अदृश्य रहता है। जितने अंश में उसका भागवान के प्रति भाव नहीं है, उतने अंश में वह भगवान के लिए अदृश्य रहता है। ऐसी ही बात भगवान ने नवें अध्याय में भी कही है कि ‘मैं सब प्राणियों में समान हूँ। न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परंतु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मेरे में हैं और मैं उनमें हूँ।’ संबंध- अब भगवान ध्यान करने वाले सिद्ध भक्तियोगी के लक्षण बताते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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