श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय अब तक अर्जुन ने अपने को धर्मात्मा मानकर युद्ध से निवृत्त होने में जितनी दलीलें, युक्तियाँ दी हैं, संसार में रचे-पचे लोग अर्जुन की उन दलीलों को ही ठीक समझेंगे और आगे भगवान अर्जुन को जो बातें समझायेंगे, उनको ठीक नहीं समझेंगे! इसका कारण यह है कि जो मनुष्य जिस स्थिति में है, उस स्थिति की, उस श्रेणी की बात को ही वे ठीक समझते हैं; उससे ऊँची श्रेणी की बात वे समझ ही नहीं सकते। अर्जुन के भीतर कौटुम्बिक मोह है और उस मोह से आविष्ट होकर ही वे धर्म की, साधुता की बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कह रहे हैं। अतः जिन लोगों के भीतर कौटुम्बिक मोह है, उन लोगों को ही अर्जुन की बातें ठीक लगेंगी। परंतु भगवान की दृष्टि जीव के कल्याण की तरफ है कि उसका कल्याण कैसे हो? भगवान की इस ऊँची श्रेणी की दृष्टि को वे[1] लोग समझ ही नहीं सकते। अतः वे भगवान की बातों को ठीक नहीं मानेंगे, प्रत्युत ऐसा मानेंगे कि अर्जुन के लिए युद्धरूपी पाप से बचना बहुत ठीक था, पर भगवान ने उनको युद्ध में लगाकर ठीक नहीं किया !
वास्तव में भगवान ने अर्जुन से युद्ध नहीं कराया है, प्रत्युत उनको अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया है। युद्ध तो अर्जुन को कर्तव्य रूप से स्वतः प्राप्त हुआ था। अतः युद्ध का विचार तो अर्जुन का खुद का ही था; वे स्वयं ही युद्ध में प्रवृत्त हुए थे, तभी वे भगवान को निमंत्रण देकर लाये थे। परंतु उस विचार को अपनी बुद्धि से अनिष्टकारक समझकर वे युद्ध से विमुख हो रहे थे अर्थात अपने कर्तव्य के पालन से हट रहे थे। इस पर भगवान ने कहा कि यह जो तू युद्ध नहीं करना चाहता, यह तेरा मोह है। अतः समय पर जो कर्तव्य स्वतः प्राप्त हुआ है, उसका त्याग करना उचित नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ लौकिक दृष्टि वाले
- ↑ 2।9
- ↑ 18।73
- ↑ 11।32
- ↑ पाण्डव
- ↑ द्रुपद
- ↑ धृष्टद्युम्न
- ↑ ।यदि भीमार्जुनौ कृष्ण कृपणौ सन्धिकामुकौ। पिता मे योत्स्यते वृद्धः सह पुत्रैर्महारथैः।।पंच चैव महावीर्याः पुत्रा मे मधुसूदन। अभिमन्यु पुरस्कृत्य योत्स्यन्ते कुरुभिः सह।।
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