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प्रथम अध्याय
यहाँ अर्जुन की दृष्टि युद्धरूपी क्रिया की तरफ है। वे युद्धरूपी क्रिया को दोषी मानकर उससे हटाना चाहते हैं; परंतु वास्तव में दोष क्या है- इस तरफ अर्जुन की दृष्टि नहीं है। युद्ध में कौटुम्बिक मोह, स्वार्थभाव, कामना ही दोष है, पर इधर दृष्टि न जाने के कारण अर्जुन यहाँ आश्चर्य और खेद प्रकट कर रहे हैं, जो कि वास्तव में किसी भी विचारशील, धर्मात्मा, शूरवीर क्षत्रिय के लिए उचित नहीं है।
[अर्जुन ने पहले अड़तीसवें श्लोक में दुर्योधनादि के युद्ध में प्रवृत्त होने में, कुल क्षय के दोष में और मित्र द्रोह के पाप में लोभ को कारण बताया; और यहाँ भी अपने को राज्य और सुख के लोब के कारण महान पाप करने को उद्यत बता रहे हैं। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन पाप के होने में ‘लोभ’ को हेतु मानते हैं। फिर भी आगे तीसरे अध्याय के छत्तीसवें श्लोक में अर्जुन ‘मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप का आचरण क्यों कर बैठता है’- ऐसा प्रश्न क्यों किया? इसका समाधान है कि यहाँ तो कौटुम्बिक मोह के कारण अर्जुन युद्ध से निवृत्त होने को धर्म और युद्ध में प्रवृत्त होने को अधर्म मान रहे हैं अर्थात उनकी शरीर आदि को लेकर केवल लौकिक दृष्टि है, इसलिए वे युद्ध में स्वजनों को मारने में लोभ को हेतु मान रहे हैं। परंतु आगे गीता का उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने श्रेय-कल्याण की इच्छा जाग्रत हो गयी[1]। इसलिए वे कर्तव्य को छोड़कर न करने योग्य काम में प्रवृत्त होने में कौन कारण है- ऐसा पूछते हैं अर्थात वहाँ[2] अर्जुन कर्तव्य की दृष्टि से, साधक की दृष्टि से पूछते हैं।]
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