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प्रथम अध्याय
संबंध- युद्ध से होने वाली अनर्थ परंपरा के वर्णन का खुद अर्जुन पर क्या असर पड़ा? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।
- अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
- यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ।। 45 ।।
अर्थ- यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि हम लोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने स्वजनों को मारने के लिए तैयार हो गये हैं!
व्याख्या- ‘अहो बत..... स्वजनमुद्यताः’- ये दुर्योधन आदि दुष्ट हैं। इनकी धर्म पर द़ृष्टि नहीं है। इन पर लोभ सवार हो गया है। इसलिए ये युद्ध के लिए तैयार हो जायँ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। परंतु हम लोग तो धर्म-अधर्म को, कर्तव्य-अकर्तव्य को, पुण्य-पाप को जानने वाले हैं। ऐसे जनकार होते हुए भी अनजान मनुष्यों की तरह हम लोगों ने बड़ा भारी पाप करने का निश्चय- विचार कर लिया है। इतना ही नहीं, युद्ध में अपने स्वजनों को मारने के लिए अस्त्र-शस्त्र लेकर तैयार हो गये हैं! यह हम लोगों के लिए बड़े भारी आश्चर्य की और खेद[1] की बात है अर्थात सर्वथा अनुचित बात है।
हमारी जो जानकारी है, हमने जो शास्त्रों से सुना है, गुरुजनों से शिक्षा पायी है, अपने जीवन को सुधारने का विचार किया है, उन सबका अनादर करके आज हमने युद्धरूपी पाप करने के लिए विचार कर लिया है- यह बड़ा भारी पाप है- ‘महत्पापम्’।
इस श्लोक में ‘अहो’ और ‘बत’- ये दो पद आए हैं। इनमें से ‘अहो’ पद आश्चर्य का वाचक है। आश्चर्य यही है कि युद्ध से होने वाली अनर्थ परंपरा को जानते हुए भी हम लोगों ने युद्धरूपी बड़ा भारी पाप करने का पक्का निश्चय कर लिया है। दूसरा ‘बत’ पद खेद का, दुःख का वाचक है। दुःख यही है कि थोड़े दिन रहने वाले राज्य और सुख के लोभ में आकर हम अपने कुटुम्बियों को मारने के लिए तैयार हो गये हैं।
पाप करने का निश्चय करने में और स्वजनों को मारने के लिए तैयार होने में केवल राज्य का सुख का लोभ ही कारण है। तात्पर्य है कि अगर युद्ध में हमारी विजय हो जायगी तो हमें राज्य, वैभव मिल जायगा, हमारा आदर सत्कार होगा, हमारी महत्ता बढ़ जायगी, पूरे राज्य पर हमारा प्रभाव रहेगा, सब जगह हमारा हुक्म चलेगा, हमारे पास धन होने से हम मनचाही भोग-सामग्री जुटा लेंगे, फिर खूब आराम करेंगे, सुख भोगेंगे- इस तरह हमारे पर राज्य और सुख का लोभ छा गया है, जो हमारे जैसे मनुष्यों के लिए सर्वथा अनुचित है।
इस श्लोक में अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि अपने सद्विचारों का, अपनी जानकारी का आदर करने से ही शास्त्र, गुरुजन आदि की आज्ञा मानी जा सकती है। परंतु जो मनुष्य अपने सद्विचारों का निरादर करता है, वह शास्त्रों की, गुरुजनों की और सिद्धांतों की अच्छी-अच्छी बातों को सुनकर भी उन्हें धारण नहीं कर सकता। अपने सद्विचारों का बार-बार निरादर, तिरस्कार करने से सद्विचारों की सृष्टि बंद हो जाती है। फिर मनुष्य को दुर्गुण-दुराचार से रोकने वाला है ही कौन? ऐसे ही हम भी अपनी जानकारी का आदर नहीं करेंगे, तो फिर हमें अनर्थ- परंपरा से कौन रोक सकता है? अर्थात कोई नहीं रोक सकता।
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