महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर पर विजय का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
- 1 बाणासुर को भगवान शंकर से वरदान
- 2 बाणासुर का अनिरुद्ध को बंदी बनाना
- 3 श्रीकृष्ण का बाणासुर के नगर में प्रवेश
- 4 देवताओं द्वारा वाणासुर के नगर की रक्षा करना
- 5 श्रीकृष्ण और महादेव का युद्ध
- 6 श्रीकृष्ण और बाणासुर का युद्ध
- 7 अनिरुद्ध को कैद से छुड़ाना
- 8 श्रीकृष्ण का द्वाराका जाना
- 9 टीका टिप्पणी और संदर्भ
- 10 संबंधित लेख
बाणासुर को भगवान शंकर से वरदान
भीष्मजी कहते हैं- महाराज युधिष्ठिर! तदनन्तर महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण अपनी रानियों के साथ दिन रात सुख का अनुभव करते हुए द्वारकापुरी में आनन्दपूर्वक रहने लगे। भरतश्रेष्ठ! उन्होंने अपने पौत्र अनिरुद्ध को निमित्त बनाकर देवताओं का जो हित साधन किया, वह इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये अत्यन्त दुष्कर था। भरत मुलभूषण! बाण नामक एक राजा हुआ था, जो बलि का ज्येष्ठ पुत्र था। वह महान बलवान और पराक्रमी होने के साथ ही सहस्र भुजाओं से सुशोभित था। राजन! बाणासुर ने सच्चे मन से बड़ी कठोर तपस्या की। उसने बहुत वर्षों तक भगवान शंकर की आराधना की। महात्मा शंकर ने उसे अनेक वरदान दिये। भगवान शंकर से देवदुर्लभ वरदान पाकर बाणासुर अनुपम बलशाली हो गया और शोणितपुर में राज्य करने लगा। भरतवंशी पाण्डुनन्दन! बाणासुर ने सब देवताओं को आतंकित कर रखा था। उसने इन्द्र आदि सब देवताओं को जीतकर कुबेर की भाँति दीर्घकालतक इस भूतल पर महान् राज्य का शासन किया। ज्ञानी विद्वान शुक्रचार्य उसकी समृद्धि बढ़ाने के लिये प्रयत्न करते रहते थे।[1]
बाणासुर का अनिरुद्ध को बंदी बनाना
राजन्! बाणासुर के एक पुत्री थी, जिसका नाम उषा था। संसार में उसके रूप की तुलना करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी। वह मेनका अप्सरा की पुत्री सी प्रतीत होती थी। कुन्तीनन्दन! महान् तेजस्वी प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्ध किसी उपाय से उषा तक पहुँचकर छिपे रहकर उसके साथ आनन्द का उपभोग करने लगे। युधिष्ठिर! महातेजस्वी बाणासुर ने गुप्त रूप से छिपे हुए प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध का अपनी पुत्री के साथ रहना जान लिया और उन्हें अपनी पुत्री सहित बलपूर्वक कारागार में ठूँस देने के लिये बंदी बना लिया। राजन्! वे सुकुमार एवं सुख भोगने के योग्य थे, तो भी उन्हें उस समय दु:ख उठाना पड़ा। बाणासुर के द्वारा भाँति-भाँति के कष्ट दिये जाने पर अनिरुद्ध मृर्च्छित हो गये।[1]
श्रीकृष्ण का बाणासुर के नगर में प्रवेश
कुन्तीकुमार! इसी समय मुनिप्रवर नारदजी द्वारका में आकर श्रीकृष्ण से मिले और इस प्रकार बोले। नारदजी ने कहा- महाबाहु श्रीकृष्ण! आप युदवंशियों की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं। इस समय अमिततेजस्वी बाणासुर आपके पौत्र अनिरुद्ध को बहुत कष्ट दे रहा है। वे संकट में पड़े हैं और सदा कारागार में निवास कर रहे हैं। भीष्मजी कहते हैं- राजन्! ऐसा कहकर देवर्षि नारद बाणासुर की राजधानी शाणितपुर को चले गये। नारदजी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने बलरामजी तथा महातेजस्वी प्रद्युम्न को बुलाया और उन दोनों के साथ वे गरुड़ पर आरूड़ हुए। तदनन्तर वे तीनों महापराक्रमी पुरुष रत्न गरुड़ पर आरूढ़ हो क्रोध में भरकर बाणासुर के नगर की ओर चले दिये। महाराज! वहाँ जाकर उन्होंने बाणासुर की पुरी को देखा, जो ताँबे की चहारदिवारी से घिरी हुई थी। चाँदी के बने हुए दरवाजे उसकी शोभा बड़ा रहे थे। वह पुरी सुवणमण् प्रासादों से भरी हुई थी और मुक्ता मणियों से उसकी विचित्र शोभा हो रही थी।[1]
देवताओं द्वारा वाणासुर के नगर की रक्षा करना
उसमें स्थान स्थान पर उद्यान और वन शोभा पा रहे थे। वह नगरी नृत्य और गीतों से सुशोभित थी। वहाँ अनेक सुन्दर फाटक बने थे। सब और भाँति-भाँति के पक्षी चहचहाते थे। कमलों से भरी हुई पुष्करिणी उस पुरी की शोभा बढ़ाती थी। उसमें ह्रष्ट-पुष्ट स्त्री पुरुष निवास करते थे और वह पुरी स्वर्ग के समान मनोहर दिखायी देती थी। प्रसन्नता से भरी हुई उसे सुवर्णमयी नगरी को देखकर श्रीकृष्ण, बलराम और प्रद्युम्न तीनों को बड़ा विस्मय हुआ। बाणासुर की राजधानी में कितने ही देवता सदा द्वार पर बैठकर पहरा देते थे। राजन्! भगवान शंकर, कार्तिकेय, भद्रकालीदेवी और अग्नि ये देवता सदा उन पुरी की रक्षा करते थे।[2]-
श्रीकृष्ण और महादेव का युद्ध
युधिष्ठिर! शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले महातेजस्वी श्रीकृष्ण ने अत्यन्त कुपित हो पूर्व द्वार के रक्षकों को बलपूर्वक जीत कर भगवान शंकर के द्वारा सुरक्षित उत्तर द्वार पर आक्रमण किया। वहाँ महान् तेजस्वी भगवान महेश्वर हाथ में त्रिशूल लिये खड़े थे। जब उन्हें मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण मुँह बाये काल की भाँति आ रहे हैं, तब वे महाबाहु महेश्वर बाणासुर के हित साधन की इच्छा से बाण सहित पिनाक नामक धनुष हाथ में लेकर श्रीकृष्ण के सम्मुख आये। तदनन्तर भगवान वासुदेव और महेश्वर परस्पर युद्ध करने लगे। उनका वह युद्ध अचिन्त्य, रोमांचकारी तथा भयंकर था। वे दोनों देवता एक दूसरे पर विजय पाने की इच्छा से परस्पर प्रहार करने लगे। दोनों ही क्रोध में भरकर एक दूसरे पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते थे। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने शूलपाणि भगवान शंकर के साथ दो घड़ी तक युद्ध करके महादेवजी को जीत लिया तथा द्वार पर खड़े हुए अन्य शिवगणों को भी परास्त करके उस उत्तम नगर में प्रवेश किया।[2]
श्रीकृष्ण और बाणासुर का युद्ध
पाण्डुनन्दन! पुरी में प्रवेश करके अत्यन्त क्रोध में भरे हुए श्रीजनार्दन ने बाणासुर के पास पहुँचकर उसके साथ युद्ध छेड़ दिया। भरतश्रेष्ठ! बाणासुर भी क्रोध से आग बबूला हो रहा था। उसने भी युद्ध में भगवान केशव पर सभी तीखे-तीखे अस्त्र शस्त्र चलाये। फिर उसने उद्योग पर्वूक अपनी सभी भुजाओं से उस समरांगण में कुपित हो श्रीकृष्ण पर सहस्रों शस्त्रों का प्रहार किया। भारत! परंतु श्रीकृष्ण ने वे सभी शस्त्र काट डाले। राजन्! तदनन्तर भगवान अधोक्षज ने दो घड़ी तक बाणासुर के साथ युद्ध करके अपना दिव्य उत्तम शस्त्र चक्र हाथ में उठाया और अमित तेजस्वी बाणासुर की सहस्र भुजाओं को काट दिया। महाराज! तब श्रीकृष्ण द्वारा अत्यन्त पीड़ित होकर बाणासुर भुजाएँ कट जाने पर शाखाहीन वृक्ष की भाँति धरती पर गिर पड़ा।[2]
अनिरुद्ध को कैद से छुड़ाना
इस प्रकार बलिपुत्र बाणासुर को रणभूमि में गिराकर श्रीकृष्ण ने बड़ी उतावली के साथ कैद में पड़े हुए प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध को छुड़ा लिया। पत्नी सहित अनिरुद्ध को छुड़ाकर भगवान गोविन्द ने बाणासुर के सभी प्रकार के असंख्य रत्न हर लिये। उसके घर में जो भी गोधन अथवा अन्य किसी प्रकार के धन मौजूद थे, उन सबको भी यहुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले भगवान ह्रषीकेश ने हर लिया। फिर वे सब रत्न लेकर मधुसूदन ने शीघ्रतापूर्वक रख लिये। कुन्तीनन्दन! तत्पश्चात उन्होंने महाबली बलदेव, अमितपराक्रमी प्रद्युम्न, परम कान्तिमान अनिरुद्ध तथा सेवकों और दासियों सहित सुन्दरी उषा- इन सबको और नाना प्रकार के रत्नों को भी गरुड़ पर चढ़ाया।[2]
श्रीकृष्ण का द्वाराका जाना
इसके बार शंख, चक्र, गदा और खड्ग धारण करने वाले, पीताम्बरधारी, महाबली एवं महातेजस्वी श्रीकृष्ण बड़ी प्रसन्नता के साथ स्वयं भी गरुड़ पर आरूढ़ हुए, मानो भगवान भास्कर उदयाचल पर आसीन हुए हों। उस समय भगवान के श्रीअंग दिव्य आभूषणों से विचित्र शोभा धारण कर रहे थे। गरुड़ पर आरूढ़ हो श्रीकृष्ण द्वारका की ओर चल दिये। राजन्! अपनी पुरी द्वारका में पहुँचकर वे यदुवंशियों के साथ ठीक वैसे ही आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे इन्द्र स्वर्गलोक में देवताओं के साथ रहते हैं।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 36
- ↑ 2.0 2.1 2.2 2.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 37
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 38
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