महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार नरकासुर का सैनिकों सहित वध की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
नरकासुर का भगवान कृष्ण के कार्यो में विघ्न डालना
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर समस्त यदुवंशियों को आनन्दित करने वाले भगवान श्रीकृष्ण शूरसेनपुरी मथुरा को छोड़कर द्वारका में चले गये। कमल नयन श्रीकृष्ण ने असुरों को पराजित करके जो बहुत से रत्न और वाहन प्राप्त किये थे, उनका वे द्वारका में यथोचिव रूप से संरक्षण करते थे। उनके इस कार्य में दैत्य और दानव विघ्न डालने लगे। तब महाबाहु श्रीकृष्ण ने वरदान से उन्मत्त हुए उन बड़े-बड़े असुरों को मार डाला। तत्पश्चात् नरक नामक राक्षस ने भगवान के कार्य में विघ्न डालना आरम्भ किया। वह समस्त देवताओं को भयभीत करने वाला था। राजन्! तुम्हें तो उसका प्रभाव विदित ही है। समस्त देवताओं के लिये अन्तकरूप नरकासुर इस धरती के भीतर मूर्तिलिंग[2] में स्थित हो मनुष्यों और ऋषियों के प्रतिकूल आचरण किया करता था। भूमि का पुत्र होने से नरक को भौमासुर भी कहते हैं।[1]
नरकासुर द्वारा स्त्रियों व रत्नों का हरण
उसने हाथी का रूप धारण करे प्रजापति त्वष्टा की पुत्री कशेरु के पास जाकर उसे पकड़ लिया। कशेरु बड़ी सुन्दरी और चौदह वर्ष की अवस्था वाली थी। नरकासुर प्राग्ज्योतिषपुर का राजा था। उसके शोक, भय और बाधाएँ दूर हो गयी थीं। उसने कशेरु को मूर्च्छित करके हर लिया और अपने घर लाकर उससे इस प्रकार कहा। नरकासुर बोला- देवि! देवताओं और मनुष्यों के पास जो नाना प्रकार के रत्न हैं, सारी पृथ्वी जिन रत्नों को धारण करती है तथा समुद्रों में जो रत्न संचित हैं, उन सबको आज से सभी राक्षस ला लाकर तुम्हें ही अर्पित किया करेंगे। दैत्य और दानव भी तुम्हें उत्तमोत्तम रत्नों की भेंट देंगे। भीष्मजी कहते हैं- भारत! इस प्रकार भौमासुर ने नाना प्राकार के बहुत से उत्म रत्नों तथा स्त्री रत्नों का भी अपहरण किया। गन्धर्वों की जो कन्याएँ थीं, उन्हें भी नरकासुर बलपूर्वक हर लाया। देवताओं और मनुष्यों की कन्याओं तथा अप्सराओं के सात समुदायों का भी उसने अपहरण कर लिया।[1]
स्त्रियों के लिये अन्त:पुर का निर्माण
इस प्रकार सोलह हजार एक सौ सुन्दरी कुमारियाँ उसके घर में एकत्र हो गयीं। वे सब की सब सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करके व्रत और नियम के पालन में तत्पर हो एक वेणी धारण करती थीं। उत्साहयुक्त मन वाले भौमासुर ने उनके रहने के लिये मणिपर्वत पर अन्त:पुर का निर्माण कराया। उस स्थान का नाम था औदका (जल की सुविधा से सम्पन्न भूमि)। वह अन्त:पुर मुर नामक दैत्य के अधिकृत प्रदेश में बना था। प्राग्ज्योतिषपुर का राजा भौमासुर, मुर के दस पुत्र तथा प्रधान-प्रधान राक्षस उन अन्त:पुर की रक्षा करते हुए सदा उसके समीप ही रहते थे।[3]-
नरकासुर द्वारा अदिति का तिरस्कार
युधिष्ठिर! पृथ्वीपुत्र भौमासुर तपस्या के अन्त में वरदान पाकर इतना गर्वोन्मत्त हो गया था कि इसने कुण्डल के लिये देवमाता अदिति तक का तिरस्कार कर दिया। पूर्वकाल में समस्त महादैत्यों ने एक साथ मिलकर भी वैसा अत्यन्त घोर पाप नहीं किया था, जैसा अकेले इस महान् असुर ने कर डाला था। पृथ्वीदेवी ने उसे उत्पन्न किया था, प्राग्ज्योतिषपुर उसकी राजधानी थी तथा चार युद्धोन्मत्त दैत्य उसके राज्य की सीमा की रक्षा करने वाले थे। वे पृथ्वी से लेकर देवयानतक के मार्ग को रोककर खड़े रहते थे। भयानक रूप वाले राक्षसाों के साथ रहकर वे देव समुदाय को भयभीत किया करते थे। उन चारों दैत्यों के नाम इस प्रकार हैं- हयग्रीव, निशुम्भ, भयंकर पंचजन तथा सहस्र पुत्रों सहत महान असुर मुर, जो वरदान प्राप्त कर चुका था। उसी के वध के लिये चक्र, गदा और खड्ग धारण करने वाले ये महाबाहु श्रीकृष्ण वृष्णिकुल में देव की के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं। वसुदेवजी के पुत्र होने से ये जनार्दन ‘वासुदेव’ कहलाते हैं। तात युधिष्ठिर! इनका तेज सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हैं। इन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का निवास स्थान प्रधानत: द्वारका ही है, यह तुम सब लोग जानते हो। द्वारकापुरी इन्द्र की निवास स्थान अमरावजी पुरी से भी अत्यन्त रमणीय है। युधिष्ठिर! भूण्डल में द्वाकरा की शोभा सबसे अधिक है। यह तो तुम प्रत्यक्ष ही देख चुके हो। देवपुरी के समान सुशोभित द्वारका नगरी में वृष्णिवंशियों के बैठने के लिये एक सन्दर सभी है, जो दाशा ही के नाम से विख्यात है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई एक-एक योजन की है। उसमें बलराम और श्रीकृष्ण आदि वृष्णि और अन्धकवंश के सभी लोग बैठते हैं और सम्पूर्ण लोक जीवन की रक्षा में दत्तचित्त रहते हैं।[3]
=इन्द्र का श्रीकृष्ण से मिलना
भरतश्रेष्ठ! एक दिन की बात है, सभी यदुवंशी उस सभा में विराजमान थे। इतने में ही दिव्य सुगन्ध से भरी हुई वायु चलने लगी और दिव्य कुसुमों की वर्षा होने लगी। तदनन्तर दो ही घड़ी के अंदर आकाश में सहस्रों सूर्यों के समान महान एवं अद्भुत तेजो राशि प्रकट हुई। वह धीरे-धीरे पृथ्वी पर आकर खड़ी हो गयी। उस तेजामण्डल के भीतर श्वेत हाथी पर बैठे हुए इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं सहित दिखायी दिये। बलराम, श्रीकृष्ण तथा राजा उग्रसेन वृष्णि और अन्धकवंश के अन्य लोगों के साथ सहसा उठकर बाहर आये और सबने देवराज इन्द्र को नमस्कार किया। इन्द्र हाथी से उतरकर शीघ्र ही भगवान श्रीकृष्ण को हृदय से लगाया। फिर बलराम तथा राजा उग्रसेन से भी उसी प्रकार मिले। भूतभावना ऐश्वर्यशाली इन्द्र ने वसुदेव, उद्धव, महामति विकद्रु, पद्युम्न, साम्ब, निशठ, अनिरुद्ध, सात्यकि, गद, सारण, अक्रूर, कृतवर्ता, चारुदष्ण तथा सुदेष्ण आदि अन्य यादवों का भी यथोचित रीति से आलिंगन करके उन सबकी ओर दृष्टिपात किया।[3]
इन्द्र का श्रीकृष्ण को अदिति के कुन्डल लाने व नरकासुर का वध करने लिए कहना
इस प्रकार उन्होंने वृष्णि और अन्धकवंश के प्रधान व्यक्तियों को हृदय से लगाकर उनकी दी हुई पूजा ग्रहण की तथा मुख को नीचे की ओर झुकाकर वे इस प्रकार बोले। इन्द्र ने कहा- भैया कृष्ण! तुम्हारी माता अदिति की आज्ञा से मैं यहाँ आया हूँ। तात! भूमिपुत्र नरकासुर ने उनके कुण्डल छीन लिये हैं।[3] मधुसूदन! इस लोक में माता का आदेश सुनने के पात्र केवल तुम्हीं हो। अत: महाभाग नरेश्वर! तुम भौमासुर को मार डालो।[4]
श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तब महाबाहु जनार्दन अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले- ‘देवराज! मैं भूमिपुत्र नरकासुर को पराजित करके माताजी के कुन्डल अवश्य ला दूँगा’। ऐसा कहकर भगवान गोविन्द ने बलरामजी से बातचीत की। तत्पश्चात् प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और अनुपम बलवान् साम्ब से भी इसके विषय में वार्तापाल करके महायशस्वी इन्द्रियाधीश्वर भगवान श्रीकृष्ण शंख, चक्र, गदा और खड्ग धारण कर गरुड़पर आरूढ़ हो देवताओं का हित करने की इच्छा से वहाँ से चल दिये। शत्रुनाशन भगवान श्रीकृष्ण को प्रस्थान करते देख इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता बड़े प्रसन्न हुए और अच्युत भगवान कृष्ण की स्तुति करते हुए उन्हीं के पीछे-पीछे चले। भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर के उन मुख्य-मुख्य राक्षसों को मारकर मुद दैत्य के बनाये हुए छ: हजार पाशों को देखा, जिनके किनारों के भागों में छुरे लगे हुए थे। भगवान ने अपने अस्त्र (चक्र) से मुद दैत्य के पाशों को काटकर मुर नामक असुर को उसके वंशजों सहित मार डाला ओर शिलाओं के समूहों को लाँघकर निशुम्भ को भी मार गिराया। तत्पश्चात् जो अकेला ही सहस्रों योद्धाओं के समान था और सम्पूर्ण देवताओंं के साथ अकेला ही युद्ध कर सकता था, उस महाबली एवं महापराक्रमी हयग्रीव को भी मार दिया। भरतश्रेष्ठ! सम्पूर्ण यादवों को आनन्दित करने वाले अमित तेजस्वी दुर्धर्ष वीर भगवान देवकीनन्दन ने औदका के अन्तर्गत लोहित गंगा के बीच विरूपाक्ष को तथा ‘पंचजन’ नाम से प्रसिद्ध नरकासुर के पांच भयंकर राक्षसों को भी मार गिराया। फिर भगवान अपनी शोभा से उद्दीप्त से दिखायी देने वाले प्राग्ज्येातिषपुर में जा पहुंँचे। वहाँ उनका दानवों से फिर युद्ध छिड़ गया। भरत कुलभूषण! वह युद्ध महान् देवासुर संग्राम के रूप में परिणत हो गया। उसके समान लोकविस्मयकारी युुद्ध दूसरा कोई नहीं हो सकता। चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण से भिड़कर सभी दानव वहाँ चक्र से छिन्न-भिन्न एवं शक्ति तथा खड्ग से आहत होकर धराशायी हो गये। परंतप युधिष्ठिर! इसप्रकार आठ लाख दानवों का संहार करके पुरुषसिंह पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण पाताल गुफा में गये, जहाँ देव समुदाय को आतंकित करने वाला नरकासुर रहता था। अत्यन्त तेजस्वी भगवान मधुसूदन ने मधु की भाँति पराक्रमी नरकासुर से युद्ध प्रारम्भ किया। भारत! देवमाता अदिति के कुण्डलों के लिये भूमिपुत्र महाकाय नरकासुर के साथ छिड़ा वह युद्ध बड़ा भयंकर था। बलावान् मधुसूदन ने चक्र हाथ में लिये हुए नरकासुर के साथ दो घड़ी तक खिलवाड़ करके बलपूर्वक चक्र से उसके मस्तक को काट डाला। चक्र से छिन्न-भिन्न होकर घायल हुए शरीर वाले नरका-सुर का मस्तक वज्र के मारे हुए वृत्रासुर के सिर की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 23
- ↑ मूर्ति या शिवलिंग के आकार का कोई दुर्भेद्य गृह, जो पृथ्वी के भीतर गुफा में बनाया गया हो। शत्रुओं से आत्मरक्षा की दृष्टि से नरकासुर ने ऐसे निवास स्थान का निर्माण करा रखा था।
- ↑ 3.0 3.1 3.2 3.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 24
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 25
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