युधिष्ठिर का राजसूयविषयक संकल्प

महाभारत सभा पर्व के ‘राजसूयारम्भ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 13 के अनुसार युधिष्ठिर का राजसूयविषयक संकल्प लेने का वर्णन इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर का दृढ़ निश्चय

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! देवर्षि नारद का वह वचन सुनकर युधिष्ठिर ने लंबी साँस खींची। राजसूय यज्ञ के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए उन्हें शान्ति नहीं मिली। राजसूय यज्ञ करने वाले महात्मा राजर्षियों की वैसी महिमा सुनकर तथा पुण्य कर्मों द्वारा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती देखकर एवं यज्ञ करने वाले राजर्षि हरिश्वन्द्र का महान् तेज (तथा विशेष वैभव एवं आदर-सत्कार ) सुनकर उन के मन में राज सूय यज्ञ करने की इच्छा हुई। तदनन्तर युधिष्ठिर ने अपने समस्त सभा सदों का सत्कार किया और उन सब सदस्यों ने भी उनका बड़ा समान किया। अन्त में (सब की सम्मति से ) उनका मन यज्ञ करने के ही संकल्प पर दृढ़ हो गया।[1]

युधिष्ठिर द्वारा प्रजा का सम्मान

राजेन्द्र! कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उस समय बार-बार विचार करके राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान में ही मन लगाया। अद्भुत बल और पराक्रम वाले धर्मराज ने पुनः अपने धर्म का ही चिन्तन किया और सम्पूर्ण लोकों का हित कैसे हो, इसी ओर वे ध्यान देने लगे। युधिष्ठिर समस्त धर्मात्माओें में श्रेष्ठ थे। वे सारी प्रजा पर अनुग्रह करके सब का समान रूप से हितसाधन करने लगे। क्रोध और अभिमान से रहित होकर राजा युधिष्ठिर ने अपने सेवकों से कह दिया कि ‘देने योग्य वस्तुएँ सब को दी जाँय अथवा सारी जनता का पावना (ऋण) चुका दिया जाय। ’ उनके राज्य में ‘धर्मराज। आप धन्य हैं। धर्मस्वरूप युधिष्ठिर आप को साधुवाद! ’ इस के सिवा और कोई बात नहीं सुनी जाती थी। उस का ऐसा व्यवहार देख सारी प्रजा उनके ऊपर पिता के समान भरोसा रखने लगी। उनके प्रति द्वेष रखने वाला कोई नहीं रहा। इसी लिये वे ‘अजात शत्रु’ नाम से प्रसिद्ध हुए।[1]

पाँचों पाण्डवों द्वारा धर्म की रक्षा

महाराज युधिष्ठिर सब को आत्मीयजनों की भाँति अपनाते, भीमसेन सब की रक्षा करते, सव्यसाची अर्जुन शत्रुओं के संहार में लगे रहते, बुद्धिमान् सहदेव सब को धर्म का उपदेश दिया करते और नकुल स्वभाव से ही सब के साथ विनयपूर्ण बर्ताव करते थे। इससे उन के राज्य के सभी जनपद कलहशून्य, निर्भय, स्वधर्म परायण तथा उन्नतिशील थे। वहाँ उन की इच्छा के अनुसार समय पर वर्षा होती थी। उन दिनों राजा के सुप्रबन्ध से ब्याज की आजीविका, यज्ञ की सामग्री, गोरक्षा, खेती और व्यापार- इन सब की विशेष उन्नति होने लगी।
निर्धन प्रजाजनों से पिछले वर्ष का बाकी कर नहीं लिया जाता था तथा चालू वर्ष का कर वसूल करने के लिये किसी को पीड़ा नहीं दी जाती थी। सदा धर्म में तत्पर रहने वाले युधिष्ठिर के शासन काल में रोग तथा अग्नि का प्रकोप आदि कोई भी उपद्रव नहीं था। लुटेरों, ठगों से, राजा से तथा राजा के प्रिय व्यक्तियों से प्रजा के प्रति अत्याचार या मिथ्या व्यवहार कभी नहीं सुना जाता था और आपस में भी सारी प्रजा एक दूसरे से मिथ्या व्यवहार नहीं करती थी। दूसरे राजा लोग विभिन्न देश के कुलीन वैश्यों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर प्रिय करने, उन्हें कर देने, अपने उपार्जित धन-रत्न आदि की भेंट देने तथा संधि-विग्रहादि छः कार्यों में राजा को सहयोग देने के लिये उन के पास आते थे। सदा धर्म में ही लगे रहने वाले राजा युधिष्ठिर के शासन-काल में राजस स्वभाव वाले तथा लोभी मनुष्यों द्वारा इच्छानुसार धन आदि का उपभोग किये जाने पर भी उन का देश दिनों दिन उन्नति करने लगा।[1]

युधिष्ठिर के सुकर्मों से उनकी ख्याति का सर्वत्र ओर फैलना

राजा युधिष्ठिर की ख्याति सर्वत्र फैल रही थी। सभी सद्गुण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। वे शीत एवं उष्ण आदि सभी द्वन्द्वों को सहने में समर्थ तथा अपने राजोचित गुणों से सर्वत्र सुशोभित होते थे। राजन्! दसों दिशाओं में प्रकाशित होने वाले वे महायशस्वी सम्राट्र जिस देश पर अधिकार जमाते, वहाँ ग्वालों से लेकर ब्राह्मणों तक सारी प्रजा उन के प्रति पिता-माता के समान भाव रखकर प्रेम करने लगती थी। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने उस समय अपने मन्त्रियो और भाइयों को बुलाकर उन से बार-बार पूछा - ‘राजसूय यज्ञ के सम्बन्ध में आप लोगों की क्या सम्मति है ?’ इस प्रकार पूछे जाने पर उन सब मन्त्रियों ने एक साथ यज्ञ की इच्छा वाले परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर से उस समय यह अर्थयुक्त बात कही- ‘महाराज! राजसूय यज्ञ के द्वारा अभिषिक्त होने पर राजा वरुण के गुणों को प्राप्त कर लेता है; इसलिये प्रत्येक नरेश उस यज्ञ के द्वारा सम्राट्र के समस्त गुणों को पाने की अभिलाषा रखता है।[2]-

युधिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ के लिये सभी राजाओं की सम्मति

‘कुरूनन्दन! आप तो सम्राट के गुणों को पाने के सर्वथा योग्य हैं; अतः आप के हितैषी सुहृद् आप के द्वारा राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान का यह उचित अवसर प्राप्त हुआ मानते हैं। ‘उस यज्ञ का समय क्षत्रसम्पत्ति यानि सेना आदि के अधीन है। उस में उत्तम व्रत का आचरण करने वाले ब्राह्मण सामवेद के मन्त्रों द्वारा अग्नि की स्थापना के लिये छः अग्नि वेदियों- का निर्माण करते हैं। ‘जो उस यज्ञ का अनुष्ठान करता है, वह ‘दर्वीहोम’ (अग्निहोत्र आदि ) से लेकर समस्त यज्ञों के फल को प्राप्त कर लेता है एवं यज्ञ के अन्त में जो अभिषेक होता है, उससे वह यज्ञकर्ता नरेश ‘सर्वजित् सम्राट्’ कहलाने लगता है। ‘महाबाहो! आप उस यज्ञ के सम्पादन में समर्थ हैं। हम सब लोग आप की आज्ञा के अधीन हैं। महाराज! आप शीघ्र ही राजसूय यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे। ‘अतः किसी प्रकार का सोच -विचार न करके आप राजसूय के अनुष्ठान में मन लगाइये। ’ इस प्रकार उन के सभी सुहृदों ने अलग-अलग और सम्मिलित होकर अपनी यही सम्मति प्रकट की।
प्रजानाथ! शत्रुसूदन पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर ने उनका यह साहसपूर्ण, प्रिय एवं श्रेष्ठ वचन सुनकर उसे मन-ही-मन ग्रहण किया। भारत! उन्होंने सुहृदों का वह सम्मति सूचक वचन सुनकर तथा यह भी जानते हुए कि राजसूय यज्ञ अपने लिये साध्‍य है। उस के विषय में बारम्बार मन-ही-मन विचार किया। फिर मन्त्रणा का महत्त्व जानने वाले बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, महात्मा ऋत्विजों, मन्त्रियों तथा धौम्य एवं व्यास आदि महर्षियों के साथ इस विषय पर पुनः विचार करने लगे। युधिष्ठिर ने कहा- महात्माओ! राजसूय नामक उत्तम यज्ञ किसी सम्राट् के ही योग्य है, तो भी मैं उस के प्रति श्रद्धा रखने लगा हूँ; अतः आप लोग बताइये, मेरे मन में जो यह राजसूय यज्ञ करने की अभिलाषा हुई है, कैसी है ? वैशम्पायन जी कहते हैं- कमलनयन जनमेजय! राजा के इस प्रकार पूछने पर वे सब लोग उस समय धर्मराज युधिष्ठिर से यों बोले- ‘धर्मज्ञ! आप राजसूय महायज्ञ करने के सर्वथा योग्य हैं। ’ ऋत्विजों तथा महर्षियों जब राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा, तब उनके मन्त्रियों और भाइयों ने उन महात्माओें के वचन का बड़ा आदर किया।[2]

युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण से सलाह करने का विचार करना

तदनन्तर मन को वश में रखने वाले महाबुद्धिमान् राजा युधिष्ठिर ने सम्पूर्ण लोकों के हित की इच्छा से पुनः इस विषय पर मन-ही-मन विचार किया- ‘जो बुद्धिमान् अपनी शक्ति और साधनों को देखकर तथा देश, काल, आय और व्यय को बुद्धि के द्वारा भलीभाँति समझ करके कार्य आरम्भ करता है, वह कष्ट में नहीं पड़ता। केवल अपने ही निश्चय से यज्ञ का आरम्भ नहीं किया जाता। ’ ऐसा समझ कर यत्नपूर्वक कार्यभार वहन करने वाले युधिष्ठिर ने उस कार्य के विषय में पूर्ण निश्चय करने के लिये जनार्दन भगवान् श्रीकृष्ण को ही सब लोगों से उत्तम माना और वे मन-ही-मन उन अप्रमेय महाबाहु श्रीहरि की शरण में गये, जो अजन्मा होते हुए भी धर्म एवं साधु पुरुषों की रक्षा आदि की इच्छा से मनुष्य लोक में अवतीर्ण हुए थे। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के देवपूजित अलौकिक कर्मों द्वारा यह अनुमान किया कि श्रीकृष्ण के लिये कुछ भी अज्ञात नहीं है तथा कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जिसे वे कर न सकें। उन के लिये कुछ भी असह्य नहीं है।[3]-

युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण को लेने के लिए दूत भेजना

इस तरह उन्होंने उन्हें सर्वशक्तिमान् एवं सर्वज्ञ माना। ऐसी निश्चयात्मक बुद्धि करके कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने गुरुजनों के शीघ्र ही एक दूत भेजा। वह दूत शीघ्रगामी रथ के द्वारा तुरंत यादवों के यहाँ पहुँचकर द्वारकावासी श्रीकृष्ण से द्वारका में मिला। उसने विनयपूर्वक हाथ जोड़ भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार निवेदन किया। दूत ने कहा- महाबाहु हृषीकेश! धर्मराज युधिष्ठिर धौम्य एवं व्यास आदि महर्षियों, द्रुपद और विराट आदि नरेशों तथा अपने समस्त भाइयों के साथ आप का दर्शन करना चाहते हैं।[3]

श्रीकृष्ण का पाण्डवों से मिलना

वैशम्पायन जी कहते हैं- दूत इन्द्र सेन की यह बात सुनकर यदुवंश शिरोमणि महाबली भगवान् श्रीकृष्ण दर्शनाभिलाषी युधिष्ठिर के पास स्वयं भी उनके दर्शन की अभिलाषा से दूत इन्द्र सेन के साथ इन्द्रप्रस्थ नगर में आये। मार्ग में अनेक देशों को लाँघते हुए वे बड़ी उतावली के साथ आगे बढ़ रहे थे। उनके रथ के घोड़े बहुत तेज चलने वाले थे। भगवान् जनार्दन इन्द्रप्रस्थ में आकर राजा युधिष्ठिर से मिले। फुफेरे भाई धर्मराज युधिष्ठिर तथा भीमसेन ने अपने घर में श्रीकृष्ण का पिता की भाँति पूजन किया।
तत्पश्चात् श्रीकृष्ण अपनी बुआ कुन्ती से प्रसन्नतापूर्वक मिले। तदनन्तर प्रेमी सुहृद् अर्जुन से मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए। फिर नकुल-सहदेव गुरु की भाँति उनकी सेवा पूजा की। इस के बाद उन्होंने एक उत्तम भवन में विश्राम किया। थोड़ी देर बाद जब वे मिलने के योग्य हुए और इस के लिये उन्होंने अवसर निकाल लिया, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने आकर उन से अपना सारा प्रयोजन बतलाया।[3]

युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ के लिए सहमति लेना

युधिष्ठिर बोले- श्रीकृष्ण! मैं राजसूय यज्ञ करना चाहता हूँ; परंतु वह केवल चाहने भर से ही पूरा नहीं हो सकता। जिस उपाय से उस यज्ञ की पूर्ति हो सकती है, वह सब आपको ही ज्ञात है। जिस में सब कुछ सम्भव है अर्थात् जो सब कुछ सम्भव है अर्थात् जो सब कुछ कर सकता है, जिस की सर्वत्र पूजा होती है तथा जो सर्वेश्वर होता है, वही राजा राजसूय यज्ञ सम्पन्न कर सकता है।
मेरे सब सुहृद् एकत्र होकर मुझ से वही राजसूय यज्ञ करने के लिये कहते हैं; परंतु इसके विषय में अन्तिम निश्चय तो आप के कहने से ही होगा। कुछ लोग प्रेम -सम्बन्ध के नाते ही मेरे दोषों या त्रुटियों को नहीं बताते हैं। दूसरे लोग स्वार्थवश वही बात कहते हैं, जो मुझे प्रिय लगे। कुछ लोग जो अपने लिये हितकर है, उसी को मेरे लिये भी प्रिय एवं हितकर समझ बैठते हैं। इस प्रकार अपने-अपने प्रयोजन को लेकर प्रायः लोगों की भिन्न-भिन्न बातें देखी जाती हैं। परंतु आप उपर्युक्त सभी हेतुओं से एवं काम-क्रोध से रहित होकर (अपने स्वरूप में स्थित हैं। अतः) इस लोक में मेरे लिये जो उत्तम एवं करने योग्य हो, उस को ठीक बताने की कृपा करें।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 13 श्लोक 17-32
  3. 3.0 3.1 3.2 3.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 13 श्लोक 33-47

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