द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 71 के अनुसार द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति का वर्णन इस प्रकार है[1]-

अर्जुन का दुर्योधन की बातों पर जवाब देना

अर्जुन ने कहा- कुन्‍तीनन्‍दन महात्‍मा धर्मराज राजा युधिष्ठिर पहले तो हमें दाँव पर लगाने के अधिकारी थे ही, किंतु जब वे अपने शरीर को ही हार गये, तब किस के स्‍वामी रहे ? इस बात पर सब कौरव विचार करें। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! तत्‍पश्‍चात् राजा धृतराष्‍ट्र अग्रिशाला के भीतर एक गीदड़ आकर जोर-जोर से हुँआ- हुँआ करने लगा। उस शब्‍द को लक्ष्‍य करके सब ओर गदहे रेंकने लगे तथा गृघ्र आदि भयंकर पक्षी भी चारों ओर अशुभसूचक कोलाहल करने लगे। तत्‍वज्ञानी विदुर तथा सुबलपुत्री गान्‍धारी ने भी उस भयानक शब्‍द को सुना। भीष्‍म, द्रोण, और गौतमवंशीय विद्वान् कृपाचार्य के कानों में भी वह अमंगलकारी शब्‍द सुन पड़ा। फिर तो वे सभी लोग उच्‍च स्‍वर से ‘स्‍वस्ति’ ‘स्‍वस्ति’ ऐसा कहने लगे। तदनन्‍तर गान्‍धारी और विद्वान् विदुर ने उस उत्‍पात सूचक भयंकर शब्‍द को लक्ष्‍य करके अत्‍यन्‍त दुखी हो राजा धृतराष्‍ट्र से उसके विषय में निवेदन किया, तब राजा ने इस प्रकार कहा। धृतराष्‍ट्र बोले - रे मन्‍दबुद्धि दुर्योधन! तू तो जीता ही मारा गया। दुर्विनीत! तू श्रेष्‍ठ कुरुवंशियों की सभा में अपने ही कुल की महिला एवं विशेषत: पाण्‍डवों की धर्म पत्‍नी को ले आकर उससे पापपूर्ण बाते कर रहा है। ऐसा कहकर बन्‍धु-बान्‍धवों को विनाश से बचाकर उनके हित की रखने वाले तत्‍वदर्शी एवं मेघावी राजा धृतराष्‍ट्र ने अपनी बुद्धि से इस दु:खद प्रसंग पर विचार करके पांचाल राजकुमारी कृष्‍णा को सान्‍त्‍वना देते हुए इस प्रकार कहा।[1]

धृतराष्ट्र का द्रौपदी को वरदान देना

धृतराष्‍ट्र ने कहा - बहु द्रौपदी! तुम मेरी पुत्रवधुओं में सबसे श्रेष्‍ठ एवं धर्म परायणा सती हो। तुम्‍हारी जो इच्‍छा हो, उसके अनुसार मुझसे वर माँग लो। द्रौपदी बोली - भरतवंश शिरोमणे! यदि आप मुझे वर देते हुए तो मैं यही माँगती हूँ कि सम्‍पूर्ण धर्म का आचरण करने-वाले राजा युधिष्ठिर दास भाव से मुक्‍त हो जायें। जिससे मेरे मनस्‍वी पुत्र प्रतिविन्‍ध्‍य को अज्ञानवश दूसरे राजकुमार ऐसा न कह सकें कि यह ‘दासपुत्र’ है। जैसे पहले राजकुमार होकर फिर कोई मनुष्‍य कमी दासपुत्र नहीं हुआ है, उसी प्रकार राजाओं के द्वारा जिसका लालन-पालन हुआ है, उस मेरे पुत्र प्रतिविन्‍ध्‍य का दासपुत्र होना कदापि उचित नहीं है। धृतराष्‍ट्र ने कहा - कल्‍याणि! तुम जैसा कहती हो, वैसे ही हो। भद्रे! अब मैं तुम्‍हें दूसरा वर देता हूँ, वह भी माँग लो। मेरा मन मुझे वर देने के लिये प्रेरित कर रहा है कि तुम एक ही वर पाने के योग्‍य नहीं हो। द्रौपदी बोली - राजन्! मैं दूसरा वर यह माँगती हूँ कि भीमसेन, अर्जुन,नकुल और सहदेव अपने रथ और धनुष-बाण सहित रहित एवं स्‍वतन्‍त्र हो जायँ। धृतराष्‍ट्र ने कहा - महाभागे! तुम अपने कुल को आनन्‍द प्रदान करने वाली हो। तुम जैसा चाहती हो, वैसा ही हो। अब तुम तीसरा वर और माँगों। तुम मेरी सब पुत्र वधुओं में श्रेष्‍ठ एवं धर्म का पालन करने वाली हो। मैं समझता हूँ, केवल दो घरों से तुम्‍हारा पूरा सत्‍कार नहीं हुआ। द्रौपदी बोली - भगवन्! लोभ धर्म का नाशक होता है, अत: अब मेरे मन में वर माँगने का उत्‍साह नहीं है। राजशिरोमणे! तीसरा वर लेने का मुझे अधिकार भी नहीं है। राजेन्‍द्र! वैश्‍य को एक वर माँगने का अधिकार बताया गया है, क्षत्रिय की स्‍त्री वर माँग सकती है, क्षत्रिय को तीन तथा ब्राह्मण को सो वर लेने का अधिकार है। राजन्! ये मेरे पति दासभाव को प्राप्‍त होकर भारी विपत्ति में फँस गये थे। अब उससे पार हो गये। इसके बाद कर्मों के अनुष्‍ठान द्वारा ये लोग स्‍वयं कल्‍याण प्राप्‍त कर लेंगे।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 71 श्लोक 15-26
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 71 श्लोक 27-36

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