ब्रह्माजी की सभा का वर्णन

महाभारत सभा पर्व के ‘लोकपाल सभाख्यान पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 11 के अनुसार ब्रह्माजी की सभा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

नारद जी कहते हैं- तात भारत! अब तुम मेरे मुख से कही हुई पितामह ब्रह्मा जी की सभा का वर्णन सुनो! वह सभा ऐसी है, इस रूप से नहीं बतलायी जा सकती। राजन! पहले सत्ययुग की बात है, भगवान सूर्य ब्रह्मा जी की सभा देखकर फिर मनुष्य लोक को देखने के लिये बिना परिश्रम के ही द्युलोक से उतरकर इस लोक में आये और मनुष्य रूप से इधर-उधर विचरने लगे। पाण्डुनन्दन! सूर्य देव ने मुझ से उस ब्राह्मी सभा का यथार्थतः वर्णन किया। भरत श्रेष्ठ! वह सभा अप्रमेय, दिव्य, ब्रह्माजी के मानसिक संकल्प से प्रकट हुई तथा समस्त प्राणियों के मन को मोह लेने वाली है। उस का प्रभाव अवर्णनीय है। पाण्डु कुलभूषण युधिष्ठिर! उस सभा के अलौकिक गुण सुनकर मेरे मन में उस के दर्शन की इच्छा जाग उठी और मैंने सूर्य देव से कहा-‘भगवान! मैं भी ब्रह्मा जी की कल्याणमयी सभा का दर्शन करना चाहता हूँ। किरणों के स्वामी सके, वह मुझे बताइये। भगवान! मैं जैसे भी उस सभा को देख सकूँ, उस उपाय का वर्णन कीजिये।’ भरतश्रेष्ठ! मेरी वह बात सुनकर सहस्रों किरणों वाले भगवान दिवाकर ने कहा - ‘तुम एकाग्रचित्त होकर ब्रह्मा जी-के व्रत का पालन करो। वह श्रेष्ठ व्रत एक हजार वर्षों में पूर्ण होगा।’ तब मैंने हिमालय के शिखर पर आकर उस महान व्रत का अनुष्ठान आरम्भ कर दिया। तदनन्तर मेरी तपस्या पूर्ण होने पर पापरहित, क्लेशशून्य और परम शक्तिशाली भगवान सूर्य मुझे साथ ले ब्रह्मा जी की उस सभा में गये। राजन! वह सभा ‘ऐसी ही है’ इस प्रकार नहीं बताथी जा सकती; क्योंकि वह एक-एक क्षण में दूसरा अनिर्वचनीय स्वरूप धारण कर लेती है। भारत! उसकी लंबाई-चैड़ाई कितनी है अथवा उसकी स्थिति क्या है, यह सब मैं कुछ नहीं जानता। मैंने किसी भी सभा का वैसा स्वरूप पहले कभी नहीं देखा था। राजन! वह सदा उत्तम सुख देने वाली है। वहाँ न सर्दी का अनुभव होता है, न गर्मी का। उस सभा में पहुँच जाने पर लोगों को भूख, प्यास और ग्लानि का अनुभव नहीं होता। वह सभा अनेक प्रकार की अत्यन्त प्रकाशमान मणियों से निर्मित हुई है। वह खंभों के आधार पर नहीं टिकी है और उस में कभी क्षयरूप विकार न आने के कारण वह नित्य मानी गयी है[2] अनन्त प्रभा वाले नाना प्रकार के प्रकाशमान दिव्य पदार्थों द्वारा अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य से भी अधिक स्वयं ही प्रकाशित होने वाली वह सभा अपने तेज से सूर्य मण्डल को तिरस्कृत करती हुई-सी स्वर्ग से भी ऊपर स्थित हुई प्रकाशित हो रही है। राजन! उस सभा में सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा जी देवमाया द्वारा समस्त जगत की स्वयं ही सृष्टि करते हुए सदा अकेले ही विराजमान होते हैं। भारत! वहाँ दक्ष आदि प्रजापतिगण उन भगवान ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित होते हैं। दक्ष, प्रचेता, पुलह, मरीचि, प्रभावशाली कश्यप।, भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, गौतम, अंगिरा, पुलस्त्य, क्रतु, प्रह्लाद, कर्दम।,[1]

अथर्वांगिरस, सूर्य किरणों का पान करने वाले बालखिल्य, मन, अन्तरिक्ष, विद्या, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, प्रकृति, विकृति तथा पृथ्वी की रचना के जो अन्य कारण हैं, इन सब के अभिमानी देवता,। महामेजस्वी अगस्त्य, शक्तिशाली मार्कण्डेय, जमदग्नि, भरद्वाज, संवर्त, च्यवन,। महाभाग दुर्वासा, धर्मात्मा ऋष्यश्रृंग, महातपस्वी योगाचार्य भगवान सनत्कुमार,। असित, देवल, तत्त्वज्ञानी जैगीषव्य, शत्रुविजयी ऋषभ, महापराक्रमी मणि,। तथा आठ अंगों से युक्त मूर्तिमान आयुर्वेद, नक्षत्रों सहित चन्द्रमा, अंशुमाली सूर्य,। वायु, क्रतु, संकल्प और प्राण- ये तथा और भी बहुत-से मूर्तिमान महान व्रतधारी महात्मा ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित होते हैं। अर्थ, धर्म, काम, हर्ष, द्वेष, तप और दम-ये भी मूर्ति मान् होकर ब्रह्माजी की उपासना करते हैं। गन्धवों और अप्सराओं के बीस गण एक साथ उस सभा में आते हैं। सात अन्य गन्धर्व भी जो प्रधान हैं, वहाँ उपस्थित होते हैं। समस्त लोकपाल, शुक्र, बृहस्पति, बुध, मंगल, शनैश्वर, राहु तथा केतु- ये सभी ग्रह,। सामगान सम्बन्धी मन्त्र, रथन्तरसाम, हरिमान, वसुमान, अपने स्वामी इन्द्र सहित बारह आदित्य, अग्नि-सोम आदि युगल नामों से कहे जाने वाले देवता,। मरूद्गण, विश्वकर्मा, वसुगण, समस्त पितृगण, सभी हविष्य,। पाण्डु नन्दन! ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा सम्पूर्ण शास्त्र,। इतिहास, उपवेद,[3] सम्पूर्ण वेदांग, ग्रह, यज्ञ, सेम और समस्त देवता,। सावित्री, दुर्गम दुःख से उबारने वाली दुर्गा, सात प्रकार[4] की प्रणवरूपा वाणी, मेधा, धृति, श्रुति, प्रज्ञा, बुद्धि, यश और क्षमा,। साम, स्तुति, गति, विविध गाथा तथा तर्कयुक्त भाष्य- ये सभी देहधारी होकर एवं अनेक प्रकार के नाटक, काव्य, कथा, आख्यायिका तथा कारिका आदि उस सभा में मुर्तिमान होकर रहते हैं। इसी प्रकार गुरुजनों की पूजा करने वाले जो दूसरे पुण्यात्मा पुरुष हैं, वे भी उस सभा में स्थित होते हैं।

युधिष्ठिर! क्षण, लव, मुहूर्त, दिन, रात, पक्ष, मास, छहों ऋतुएँ,। साठ संवत्सर, पाँच संवत्सरों का युग, चार प्रकार के दिन-रात (मानव, पितर, देवता और ब्रह्मा जी के दिन-रात), नित्य, दिव्य, अक्षय एवं अव्यय कालचक्र तथा धर्मचक्र भी देह धारण करके सदा ब्रह्मा जी की सभा में उपस्थित रहते हैं। अदिति, दिति, दनु, सुरसा, विनता, इरा, कालिका, सुरभीदेवी, सरभा, गौतमी, प्रभा और कद्रू- ये दो देवियाँ, देवमाताएँ, रुद्राणी, श्री, लक्ष्मी, भद्रा तथा अपरा, षष्ठी, पृथ्वी, भूतल पर उतरी हुई गंगादेवी, लज्जा, स्वाहा, कीर्ति, सुरादेवी, शची, पुष्टि, अरून्धती संवृत्ति, आशा, नियति, सृष्टि देवी, रति तथा अन्य देवियाँ भी उस सभा में प्रजापति ब्रह्मा जी की उपासना करती हैं। आदित्य, वसु, रुद्र, मरूद्गण, अश्विनी कुमार, विश्वे देव, साध्य तथा मन के समान वेगशली पितर भी उस सभा में उपस्थित होते हैं। नरश्रेष्ठ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि पितरों के सात ही गण होते हैं, जिन में चार तो मूर्तिमान हैं और तीन अमूर्त। भारत! सम्पूर्ण लोकों में विख्यात स्वर्ग लोक में विचरने वाले महाभाग वैराज, अग्निष्वात्त, सोमपा, गार्हपत्य (ये चार मूर्त हैं), एक श्रृंग, चतुर्वेद तथा कला (ये तीन अमूर्त हैं)। ये सातों पितर क्रमशः चारों वर्णों में पूजित होते हैं। राजन! पहले इन पितरों के तृप्त होने से फिर सोम देवता भी तृप्त हो जाते हैं। ये सभी पितर उक्त सभा में उपस्थित हो प्रसन्नतापूर्वक अमित तेजस्वी प्रजापति ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं।[5] इसी प्रकार राक्षस, पिशाच, दानव, गुह्यक, नाग, सुपर्ण तथा श्रेष्ठ पशु भी वहाँ पितामह ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं। स्थावर और जंगम महाभूत, देवराज इन्द्र, वरुण, उस सभा में पधारते हैं। राजेन्द्र! स्वामी कार्तिकेय भी वहाँ उपस्थित होकर सदा ब्रह्म जी की सेवा करते हैं। भगवान नारायण, देवर्षिगण, बालखिल्य ऋषि तथा दूसरे अयोनिज और योनिज ऋषि उस सभा में ब्रह्मा जी की आराधना करते हैं। नरेश्वर! संक्षेप में यह समझ लो कि तीनों लोकों में स्थावर- जंगम भूतों के रूप में जो कुछ भी दिखायी देता है, वह सब मैंने उस सभा में देखा था। पाण्डु नन्दन! अट्ठासी हजार ऊधर्वरेता ऋषि और पचाप्स संतानवान महर्षि उस सभा में उपस्थित होते हैं। वे सब महर्षि तथा सम्पूर्ण देवता वहाँ इच्छानुसार ब्रह्मा जी का दर्शन करके उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करते और आज्ञा लेकर जैसे आये होते हैं, वैसे ही चले जाते हैं। अगाध बुद्धि वाले दयालु लोक पितामह ब्रह्मा जी अपने यहाँ आये हुए सभी महाभाग अतिथियों- देवता, दैत्य, नाग, पक्षी, यक्ष, सुपर्ण, कालेय, गन्धर्व तथा अप्पसराओं एवं सम्पूर्ण भूतों से यथा योग्य मिलते हैं और उन्हें अनुगृहीत करते हैं। मनुजेश्वर! अमित तेजस्वी विश्वत्मा स्वयम्भू उन सब अतिथियों को अपना कर उन्हें सान्त्वना देते, उनका सम्मान करते, उनके प्रयोजन की पूर्ति करके उन सब को आवश्यकता तथा रुचि के अनुसार भोग सामग्री प्रदान करते हैं। तात भारत! इस प्रकार वहाँ आने- जाने वाले लोगों से भरी हुई वह सभा बड़ी सुखदायिनी जान पड़ती है। नृपश्रेष्ठ! वह सभा सम्पूर्ण तेज से सम्पन्न, दिव्य तथा ब्रह्मर्षियों के समुदाय से सेवित और पापरहित एवं ब्राह्मी श्री से उद्भासित और सुशोभित होती रहती है। वैसी उस सभा का मैंने दर्शन किया है। जैसे मनुष्य लोक में तुम्हारी यह सभा दुर्लभ है, वैसे ही सम्पूर्ण लोकों में तुम्हारी यह सभा दुर्लभ है, वैसे ही सम्पूर्ण लोकों में ब्रह्मा जी की सभा परम दुर्लभ है। भारत! ये सभी सभाएँ मैंने पूर्व काल से देव लोक में देखी हैं! मनुष्य लोक में तो तुम्हारी यह सभा ही सर्वश्रेष्ठ है।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-19
  2. ‘एतत् सत्यं ब्रह्मपुरम्’ इस श्रुति से भी उस की नित्यता ही सूचित होती है।
  3. आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और अर्थशास्त्र - ये चार उपवेद माने गये हैं।
  4. अकार, उकार, मकार, अर्थ मात्रा, नाद, बिन्दु और शक्ति- ये प्रणव के सात प्रकार हैं। अथवा संस्कृत, प्राकृत, पैशाची, अपभ्रंश, ललित, मागध और गद्य- ये वाणी के सात प्रकार जानने चाहिये।
  5. महाभारत सभा पर्व अध्याय 11 श्लोक 20-48
  6. महाभारत सभा पर्व अध्याय 11 श्लोक 49-62

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