महाभारत सभा पर्व के ‘शिशुपाल वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 45 के अनुसार श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल वध का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
कृष्ण का शिशुपाल की बातों का उत्तर देना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म की यह बात सुनते ही महापराक्रमी चेदिराज शिशुपाल भगवान वासुदेव के साथ युद्ध के लिये उत्सुक हो उनसे इस प्रकार बोला-‘जनार्दन! मैं तुम्हें बुला रहा हूँ आओ, मेरे साथ युद्ध करो, जिससे आज मैं समस्त पाण्डवों सहित तुम्हें मार डालूँ। ‘कृष्ण! तुम्हारे साथ ये पाण्डव भी सर्वथा मेरे वध्य हैं, क्योंकि इन्होंने सब राजाओं की अवहेलना करके राजा न होने पर भी तुम्हारी पूजा की। ‘तुम कंस के दास थे तथा राजा भी नहीं हो, इसीलिये राजोचित पूजा के अनधिकारी हो। तो भी कृष्ण! जो लोग मूर्खतावश तुम जैसे दुर्बुद्धि की पूजनीय पुरुष की भाँति पूजा करते हैं, वे अवश्य ही मेरे वध्य है, मैं तो ऐसा ही मानता हूँ’। ऐसा कहकर क्रोध में भरा हुआ राजसिंह शिशुपाल दाहड़ता हुआ युद्ध के लिये डट गया। शिशुपाल के ऐसा कहने पर अनन्तपराक्रमी भगवान श्रीकृष्ण ने उसके सामने समस्त राजाओं से मधुर वाणी में कहा- ‘भूमिपालों! यह है तो यदुकुल की कन्या का पुत्र, परंतु हम लोगों से अत्यन्त शत्रुता रखता है। यद्यपि यादवों ने इसका कभी कोई अपराध नहीं किया है, तो भी यह क्रूरात्मा उनके अहित में ही लगा रहता है। ‘नरेश्वर! हम प्राग्ज्योतिषपुर में गये थे, यह बात जब इसे मालूम हुई, तब इस क्रूरकर्मा ने मेरे पिताजी का भानजा होकर भी द्वारका में आग लगवा दी। ‘एक बार भोजराज (उग्रसेन) रैवतक पर्वत पर क्रीड़ा कर रहे थे। उस समय यह वहीं जा पहुँचा और उनके सेवकों को मारकर तथा शेष व्यक्तियों को कैर करके उन सबको अपने नगर में ले गया। ‘मेरे पिताजी अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ले चुके थे। उसमें रक्षकों से घिरा हुआ पवित्र अश्व छोड़ा गया था। इस पापपूर्ण विचार वाले दुष्टात्मा ने पिताजी के यज्ञ में विघ्न डालने के लिये उस अश्व को भी चुरा लिया था। ‘इतना ही नहीं, इसने तपस्वी बभ्रु की पत्नी का, जो यहाँ से द्वारका जाते समय सौवीर देश पहुँची थी और इसके प्रति जिसके मन में तनिक भी अनुराग नहीं था, मोहवश अपहरण कर लिया। ‘इस क्रूरकर्मा ने माया से अपने असली रूप को छिपाकर करूषराज की प्राप्ति के लिये तपस्या करने वाली अपने मामा विशाल नरेश की कन्या भद्रा का (करूषराज के ही वेष में उपस्थित हो उसे धोखा देकर) अपहरण कर लिया। ‘मैं अपनी बुआ के संतोष के लिये ही इसके बड़े दु¸:खद अपराधों का सहन कर रहा हूँ, सौभाग्य की बात है कि आज यह समस्त राजाओं के समीप मौजूद है। ‘आप सब लोग देख रहे हैं कि इस समय यह मेरे प्रति कैसा अभद्र बर्ताव कर रहा है। इसने परोक्ष में मेरे प्रति जो अपराध किये हैं, उन्हें भी आप अच्छी तरह जान लें। ‘परंतु आज इसने अहंकारवश समस्त राजाओं के सामने मेरे साथ जो दुर्व्यवहार किया है, उसे मैं कभी क्षमा न कर सकूँगा। ‘अब यह मरना ही चाहता है। इस मूर्ख ने पहले रुक्मिणी के लिये उनके बन्ध बान्धओं से याचना की थी, पंरतु जैसे शूद्र वेद की ऋचाओं को श्रवण नहीं कर सकता, उसी प्रकार इस अज्ञानी को वह प्राप्त न हो सकी’।[1]
श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल का वध
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण की ये सब बातें सुनकर उन समस्त राजाओं ने एक स्वर से चेदिराज शिशुपाल को धिक्कारा और उसकी निन्दा की। श्रीकृष्ण का उपर्युक्त वचन सुनकर प्रतापी शिशुपाल खिल खिलाकर हँसने लगा और इस प्रकार बोला- ‘कृष्ण! तुम इस भरी सभा में, विशेषत: सभी राजाओं के सामने रुक्मिणी को मेरी पहले की मानोनीत पत्नी बताते हुए लज्जा का अनुभव कैसे नही करते? ‘मधुसूदन! तुम्हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपनी स्त्री को पहले दूसरे की वाग्दत्ता पत्नी स्वीकार करते हुए सत्पुरुषों की सभा में इसका वर्णन करेगा? ‘कृष्ण! यदि अपनी बुआ की बातों पर तुम्हें श्रद्धा हो तो मेरे अपराध क्षमा करो या न भी करो, तुम्हारे कुपित होने या प्रसन्न होने से मरा क्या बनने बिगड़ने वाला है?’ शिशुपाल इस तरह की बातें कर ही रहा था कि भगवान मधुसूदन ने मन ही मन दैत्यवर्ग विनाशक सुदर्शन चक्र का स्मरण किया। चिन्तन करते ही तत्काल चक्र हाथ में आ गया। तब बोलने में कुशल भगवान श्रीकृष्ण ने उच्च स्वर से यह वचन कहा-‘यहाँ बैठे हुए सब महीपाल यह सुन लें कि मैंने क्यों अब तक इसके अपराध क्षमा किये हैं? इसी की माता के याचना करने पर मैंने उसे यह प्रार्थित वर दिया था कि शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा कर दूँगा। राजाओं! वे सब अपराध अब पूरे हो गये हैं, अत: आप सभी भूमिपतियों के देखते देखते मैं अभी इसका वध किये देता हूँ’। ऐसा कहकर कुपित हुए शत्रुहन्ता यदुकुल तिलक भगवान श्रीकृष्ण ने चक्र से उसी क्षण शिशुपाल का सिर उड़ा दिया। महाबाहु शिशुपाल वज्र के मारे हुए पर्वत शिखर की भाँति धराशायी हो गया। महाराज! तदनन्तर सभी नरेशों ने देखा, चेदिराज के शरीर से एक उत्कृक्ष तेज निकलकर ऊपर उठ रहा है, मानो आकाश से सूर्य उदित हुआ हो। नरेश्वर! उस तेज ने विश्ववन्दित कमल दललोचन श्रीकृष्ण को नमस्कार किया और उसी समय उनके भीतर प्रविष्ट हो गया। यह देखकर सभी राजाओं को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसका तेज महाबाहु पुरुषोत्तम में प्रविष्ट हो गया। श्रीकृष्ण के द्वारा शिशुपाल के मारे जाने पर सारी पृथ्वी हिलने लगी, बिना बादलों के ही आकाश से वर्षो होने लगी और प्रज्वलित बिजली टूट टूटकर गिरने लगे। वह समय वाणी की पहुँच के परे था। उसका वर्णन करना कठिन था। उस समय कोई भूपाल वहाँ इस विषय में कुछ भी न बोल सके मौन रह गये। वे बार बार केवल श्रीकृष्ण के मुख की ओर देखते रहे। कुछ अन्य नरेश अत्यन्त अमर्ष में भरकर हाथों से हाथ मसलने लगे तथा दूसरे लोग क्रोध से मूर्च्छित होकर दाँतों से ओठ चबाने लगे। कुछ राजा एकान्त में भगवान श्रीकृष्ण की प्रशंसा करने लगे। कुछ ही भूपाल अत्यन्त क्रोध के वशीभूत हो रहे थे तथा कुछ लोग तटस्थ थे। बड़े बड़े ऋषि, महात्मा ब्राह्मणों तथा महाबली भूमिपालों ने भगवान श्रीकृष्ण का वह पराक्रम देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो उनकी स्तुति करते हुए उन्हीं की शरण ली। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने भाईयों से कहा- ‘दमघोष पुत्र वीर राजा शिशुपाल का अन्त्येष्टि संस्कार बड़े सत्कार के साथ करो, इसमें देर न लगोओ।’ पाण्डवों ने भाई क उस आज्ञा का यथार्थ रूप से पालन किया। उस समय कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने वहाँ आये हुए सभी भूमिपालों के साथ चेदिराज के राजसिंहासन पर शिशुपाल के पुत्र को अभिषिक्त कर दिया। तदनन्तर महातेजस्वी कुरुराज युधिष्ठिर वह सम्पूर्ण समृद्धियों से भरा पूरा राजसूयज्ञ तरुण राजाओं की प्रसन्नता को बढ़ाता हुआ अनुपम शोभा पाने लगा।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
महाभारत सभा पर्व में उल्लेखित कथाएँ
सभाक्रिया पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार मयासुर द्वारा सभा भवन निर्माण
| श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा
| मयासुर का भीम-अर्जुन को गदा और शंख देना
| मय द्वारा निर्मित सभा भवन में युधिष्ठिर का प्रवेश
लोकपाल सभाख्यान पर्व
नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देना
| युधिष्ठिर की दिव्य सभाओं के विषय में जिज्ञासा
| इन्द्र सभा का वर्णन
| यमराज की सभा का वर्णन
| वरुण की सभा का वर्णन
| कुबेर की सभा का वर्णन
| ब्रह्माजी की सभा का वर्णन
| राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य
राजसूयारम्भ पर्व
युधिष्ठिर का राजसूयविषयक संकल्प
| श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ की सम्मति
| जरासंध के विषय में युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्ण की बातचीत
| जरासंध पर जीत के विषय में युधिष्ठिर का उत्साहहीन होना
| श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की बात का अनुमोदन
| युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाना
| जरा राक्षसी का अपना परिचय देना
| चण्डकौशिक द्वारा जरासंध का भविष्य कथन
जरासंध वध पर्व
श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम की मगध यात्रा
| श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा
| श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद
| जरासंध की युद्ध के लिए तैयारी
| जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर का वर्णन
| भीम और जरासंध का भीषण युद्ध
| भीम द्वारा जरासंध का वध
| जरासंध द्वारा बंदी राजाओं की मुक्ति
दिग्विजय पर्व
पाण्डवों की दिग्विजय के लिए यात्रा
| अर्जुन द्वारा अनेक राजाओं तथा भगदत्त की पराजय
| अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पाना
| किम्पुरुष, हाटक, उत्तरकुरु पर अर्जुन की विजय
| भीम का पूर्व दिशा में जीतने के लिए प्रस्थान
| भीम का अनेक राजाओं से भारी धन-सम्पति जीतकर इन्द्रप्रस्थ लौटना
| सहदेव द्वारा दक्षिण दिशा की विजय
| नकुल द्वारा पश्चिम दिशा की विजय
राजसूय पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना
| राजसूय यज्ञ में राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन
| राजसूय यज्ञ का वर्णन
अर्घाभिहरण पर्व
राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम
| भीष्म की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा
| शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन
| युधिष्ठिर का शिशुपाल को समझाना
| भीष्म का शिशुपाल के आक्षेपों का उत्तर देना
| भगवान नारायण की महिमा
| भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ वध
| वराह अवतार की संक्षिप्त कथा
| नृसिंह अवतार की संक्षिप्त कथा
| वामन अवतार की संक्षिप्त कथा
| दत्तात्रेय अवतार की संक्षिप्त कथा
| परशुराम अवतार की संक्षिप्त कथा
| श्रीराम अवतार की संक्षिप्त कथा
| श्रीकृष्ण अवतार की संक्षिप्त कथा
| कल्कि अवतार की संक्षिप्त कथा
| श्रीकृष्ण का प्राकट्य
| कालिय-मर्दन एवं धेनुकासुर वध
| अरिष्टासुर एवं कंस वध
| श्रीकृष्ण और बलराम का विद्याभ्यास
| श्रीकृष्ण का गुरु को दक्षिणा रूप में उनके पुत्र का जीवन देना
| नरकासुर का सैनिकों सहित वध
| श्रीकृष्ण का सोलह हजार कन्याओं को पत्नीरूप में स्वीकार करना
| श्रीकृष्ण का इन्द्रलोक जाकर अदिति को कुण्डल देना
| द्वारकापुरी का वर्णन
| रुक्मिणी के महल का वर्णन
| सत्यभामा सहित अन्य रानियों के महल का वर्णन
| श्रीकृष्ण और बलराम का द्वारका में प्रवेश
| श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर पर विजय
| भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार
| सहदेव की राजाओं को चुनौती
शिशुपाल वध पर्व
युधिष्ठिर को भीष्म का सान्त्वना देना
| शिशुपाल द्वारा भीष्म की निन्दा
| शिशुपाल की बातों पर भीम का क्रोध
| भीष्म द्वारा शिशुपाल के जन्म का वृतांत्त का वर्णन
| भीष्म की बातों से चिढ़े शिशुपाल का उन्हें फटकारना
| श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल वध
| राजसूय यज्ञ की समाप्ति
| श्रीकृष्ण का स्वदेशगमन
द्यूत पर्व
व्यासजी की भविष्यवाणी से युधिष्ठिर की चिन्ता
| दुर्योधन का मय निर्मित सभा भवन को देखना
| युधिष्ठिर के वैभव को देखकर दुर्योधन का चिन्तित होना
| पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने के लिए दुर्योधन-शकुनि की बातचीत
| दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध
| धृतराष्ट्र का विदुर को इन्द्रप्रस्थ भेजना
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दुख और चिन्ता का कारण बताना
| युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन
| दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक का वर्णन
| दुर्योधन को धृतराष्ट्र का समझाना
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र को उकसाना
| द्यूतक्रीडा के लिए सभा का निर्माण
| धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को बुलाने के लिए विदुर को आज्ञा देना
| विदुर और धृतराष्ट्र की बातचीत
| विदुर और युधिष्ठिर बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर आना
| जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद
| द्यूतक्रीडा का आरम्भ
| जुए में शकुनि के छल से युधिष्ठिर की हार
| धृतराष्ट्र को विदुर की चेतावनी
| विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध
| दुर्योधन का विदुर को फटकारना और विदुर का उसे चेतावनी देना
| युधिष्ठिर का धन, राज्य, भाई, द्रौपदी सहित अपने को भी हारना
| विदुर का दुर्योधन को फटकारना
| दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाना
| सभासदों से द्रौपदी का प्रश्न
| भीम का क्रोध एवं अर्जुन को उन्हें शान्त करना
| विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण द्वारा विरोध
| द्रौपदी का चीरहरण
| विदुर द्वारा प्रह्लाद का उदाहरण देकर सभासदों को विरोध के लिए प्रेरित करना
| द्रौपदी का चेतावनी युक्त विलाप एवं भीष्म का वचन
| दुर्योधन के छल-कपटयुक्त वचन और भीम का रोषपूर्ण उद्गार
| कर्ण और दुर्योधन के वचन एवं भीम की प्रतिज्ञा
| द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति
| कौरवों को मारने को उद्यत हुए भीम को युधिष्ठिर का शान्त करना
| धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश
अनुद्यूत पर्व
दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पुन: द्युतक्रीडा के लिए पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध
| गान्धारी की धृतराष्ट्र को चेतावनी किन्तु धृतराष्ट्र का अस्वीकार करना
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन: जुआ खेलना और हारना
| दु:शासन द्वारा पाण्डवों का उपहास
| भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की भीषण प्रतिज्ञा
| विदुर का पाण्डवों को धर्मपूर्वक रहने का उपदेश देना
| द्रौपदी का कुन्ती से विदा लेना
| कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होना
| वनगमन के समय पाण्डवों की चेष्टा
| प्रजाजनों की शोकातुरता के विषय में धृतराष्ट्र-विदुर का संवाद
| शरणागत कौरवों को द्रोणाचार्य का आश्वासन
| धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज