भीम द्वारा जरासंध का वध

महाभारत सभा पर्व के ‘जरासंध वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 24 के अनुसार भीम द्वारा जरासंध का वध वर्णन इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण द्वारा भीम को जरासंध वध के प्रेरित करना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर भीमसेन ने विशाल बुद्धि का सहारा ले जरासंध के वध की इच्छा से यदुनन्दन श्रीकृष्ण को सम्बोधि करके कहा- ‘यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण! जरासंध ने लंगोट से अपनी कमर खूब कस ली है। यह पाली प्राण रहते मेरे वश में आने वाला नहीं जाना पड़ता’। उनके ऐसा कहने पर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने जरासंध के वध के लिये भमसेन को उत्तेजित करते हुए कहा- ‘भीम! तुम्हारा जो सर्वोत्कृष्ट देवी स्वरूप है और तुम्हें वायुदेवता से जो दिव्य बल प्राप्त हुआ है, उसे आज हमारे सामने जरासंध पर शीघ्रतापर्वूक दिखाओ। ‘यह खोटी बुद्धिवाला महारथी जरासंध तुम्हारे हाथों से ही मारा जा सकता है। यह बात आकाश में मुझे उसे समय सुनायी पड़ी थी जबकि बलरामजी के द्वारा जरासंध के प्राण लेने की चेष्टा की जा रही थी। ‘इसीलिये गिरिश्रेष्ठ गोमन्त पर भैया बलराम ने इसे जीवित छोड़ दिया था, अन्यथा बलदेवजी के काबू में आ जाने पर इस जरासंध के सिवा दूसरा कौन जीवित बच सकता था? ‘महाबली भीम! तुम्हारे सिवा और किसी के द्वारा इसकी मृत्यु नहीं होने वाली है। महाबाहो! तुम वायुदेव का चिन्तन करके इस मगधराज को मार डालो। उनके इस तरह संकेत करने पर शत्रुओं का दमन करने वाले महाबली भीम ने उस समय बलवान् जरासंध को उठाकर आकश में वेग से घुमाना आरम्भ किया। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने जरासंध का वध कराने की इच्छा से भीमसेन की ओर देखकर एक नरकट हाथ में लिया और उसे (दातुन की भाँति) दो टुकड़ों में चीर डाला (तथा उसे फेंक दिया)। यह जरासंध को मारने के लिये एक संकेत था। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! (भीमने उनके संकेत को समझ लिया और) उन्होंने सौ बार घुमाकर उसे धरती पर पटक दियाऔरउसकी पीठ को धनुष की तरह मोड़कर दोनों घुटनों की चोट से उसकी रीढ़ तोड़ डाली, फिर अपने शरीर की रगड़ से पीसते हुए भीम ने बड़े जोर से सिंहनाद किया। इसके बाद अपने एक हाथ से उसका एक पैर पकड़कर और दूसरे पैर पर अपना पैर रखकर महाबली भीम ने उसे दो खण्डों में चीर डाला। तब वे दोनों टुकड़ें फिर से जुड़ गये और प्रतापी जरासंध भीम से भिड़कर बाहुयुद्ध करने लगा। उन दोनों वीरों का वह युद्ध अत्यन्त भयंकर ओर रोमांचकारी था। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो सम्पूर्ण जगत का संहार हो जायगा। वह इन्द्रयुद्ध सम्पूर्ण प्राणियों के भय को बढ़ाने वाला था।[1]

श्रीकृष्ण का भीम को वध के लिए संकेत देना

उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने पुन: एक नरकट लेकर पहले की ही भाँति चीरकर उसके दो टुकड़े कर दिये और उन दोनों टुकड़ों को अलग-अलग विपरीत दिशा में फेंक दिया। जरासंध के वध के लिये यह दूसरा संकेत था। भीमसेन ने उसे समझकर पुन: मगधराज को दो टुकड़ों में चीर डाला और पैर से ही उन दोनों टुकड़ों को विपरीत दिशाओं में करके फेंक दिया। इसके बाद वे विकट गर्जना करने लगे। राजन्! उस समय जरासंध का शरीर शरूप होकर मांस के लोंटे सा जान पड़ने लगा। उसके शरीर के मांस, हड्डियाँ, मेदा और चमड़ा सभी सूख गये थे। मस्तिष्क और शरीर दो भागों में विदीर्ण हो गये थे। जब जरासंध रगड़ा जा रहा था और पाण्डुकुमार गर्ज गर्ज कर उसे पीसे डालते थे, उस समय भीमसेन की गर्जना और जरासंध की चीत्कार से जो तुमुल नाद प्रकट हुआ, वह समस्त प्राणियों को भयभीत करने वाला था। उसे सुनकर सभी मगधनिवासी भय से थर्रा उठे। स्त्रियों के तो गर्भ तक गिर गये।[1]

जरासंध वध और भीमसेन की जीत

भीमसेन की गर्जना सुनकर मगध के लोग भयभीत होकर सोचने लगे कि ‘कहीं हिमालय पहाड़ तो नहीं फट पड़ा? कहीं पृथ्वी तो विदीर्ण नहीं हो रही है?’ तदनन्तर शत्रुओं का दमन करने वाले वे तीनों वीर रात में राजा जरासंध के प्राणहीन शरीर को सोते हुए के समान राजभवन के द्वार पर छोड़कर वहाँ से चल दिये। श्रीकृष्ण ने जरासंध के ध्वजा पताकामण्डित दिव्य रथ को जोत लिया और उस पर दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन को बिठाकर पहाड़ी खोह के पास जा वहाँ कैद में पड़े हुए अपने बान्धव स्वरूप समस्त राजाओं को छुड़ाया। उस माहन् भय से छूटे हुए रत्नभोगी नरेशों ने भगवान श्रीकृष्ण से मिलकर उन्हें विविध रत्नों से युक्त कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण क्षतरहित और अस्त्र शस्त्रों से सम्पन्न थे। वे शत्रु पर विजय पा चुके थे, उस अवस्था में वे उस दिव्य रथ पर आरूढ़ हो कैद से छूटे हुए राजाओं के साथ गिरिव्रज नगर से बाहर निकले। उस रथ का नाम था सोदर्यवान्, उसमें दो महारथी योद्धा एक साथ बैठकर युद्ध कर सकते थे, इस समय भगवान श्रीकृष्ण उसके सारथि थे। उस रथ में बार-बार शत्रुओं पर आघात करने की सुविधा थी तथा वह दर्शनीय होने के साथ ही समस्त राजाओं के लिये दुर्जय था। भीम और अर्जुन- ये दो योद्ध उस रथ पर बैठे थे, श्रीकृष्ण सारथि का काम सँभाल रहे थे, सम्पूर्ण धनुर्धर वीरों के लिये भी उसे जीतना कठिन था।[2]

श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम का रथ पर बैठना

इन दोनों रथियों के द्वारा उस श्रेष्ठ रथ की ऐसी शोभा हो रही थी मनों इन्द्र और विष्णु एक साथ बैठकर तारकामय संगा्रम में विचर रहे हों। वह रथ तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्तिमान् था। उसमें क्षुद्र घण्टिकाओं से युक्त झालरें लगी थीं। उसकी घर्घराहट मेघ की गम्भीर गर्जना के समान जान पड़ती थी। वह शत्रुओं का विघातक और विजय प्रदान करने वाला था। उसी रथ पर सवार हो उसके द्वारा श्रीकृष्ण ने उस समय यात्रा की। यह वही रथ था, जिसके द्वारा इन्द्र ने निन्यानवे दानवों का वध किया था। उस रथ को पाकर वे तीनों नरश्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुए। तदनन्दतर दोनों फुफेरे भाइयों के साथ रथ पर बैठे हुए महाबाहु श्रीकृष्ण को देखकर मगध के निवासी बड़े विस्मित हुए। वह रथ वायु के समान वेगशाली था, उसमें दिव्य घोड़े जुते हुए थे। भारत! श्रीकृष्ण के बैठ जाने से उस दिव्य रथ की बड़ी शोभा हो रही थी। उस उत्तम रथ पर देवनिर्मित ध्वज फहराता रहता था, जो रथ से अछूता था (रथ के साथ उसका लगाव नहीं था, वह बिना आधार के ही उसके ऊपर लहराया करता था)। इन्द्रधनुष के समान प्रकाशमान बहुरंगी एवं शोभाशाली वह ध्वज एक योजन दूर से ही दीखने लगता था। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने गरुडजी का स्मरण किया। गरुडजी उसी खण वहाँ आ गये। उस रथ की ध्वजा में बहुत से भूत मुँह बोय हुए विकट गर्जना करते रहते थे। उन्हीं के साथ सर्पभोजी गरुडजी भी उस श्रेष्ठ रथ पर स्थित हो गये। उनके द्वारा वह ध्वज ऊँचे उठे हुए चैत्य वृक्ष के समान सुशोभित हो गया।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-9
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 24 श्लोक 10-24

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