कालिय-मर्दन एवं धेनुकासुर वध

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार कालिय-मर्दन एवं धेनुकासुर वध की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण द्वारा कालिय-मर्दन

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर एक दिन मनोहर रूप और सुन्दर मुख वाले भगवान गोविन्द अपने बड़े भाई संकर्षण को साथ लिये बिना ही रमणीय वृन्दावन में चले गये और वहाँ इधर-उधर भ्रमण करने लगे। उन्होंने काक पक्ष धारण कर रखा था। वे परम शोभायमान, श्याम वर्ण तथा कमल के समान सुन्दर नेत्रों से सुशोभित थे। जैसे चन्द्रमा कलंक से युक्त होकर शोभा पाता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण का वक्ष:स्थल श्रीवत्स चिह्न से शोभा पा रहा था। उन्होंने रस्सियों को यज्ञोपवीत की भाँति पहन रखा था। उनके श्रीअंगों पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। विभिन अंगों में श्वेत चन्दन का अनुलेप किया गया था। उनके मस्तक पर काले-घुँघराले केश सुशोभित थे। सिर पर मोरपंख का मुकुट शोभा पाता था, जो मन्द-मन्द वायु के झोंकों से लहरा रहा था। भगवान कहीं गीत गाते, कहीं क्रीड़ा करते, कहीं नाचते और कहीं हँसते थे। इस प्रकार गोपालोचित वेष धारण किये मधुर गीत गाते और वेणु बजाते हुए तरुण श्रीकृष्ण गौओं को आनन्दित करने के लिये कभी-कभी वन में घूमते थे। अत्यन्त कान्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण वर्षा के समय गोकुल में वहाँ के अतिशय रमणीय प्रदेशों तथा वनश्रेणियों में विचरण करते थे। भरतश्रेष्ठ! उन वनश्रेणियों में भाँति-भाँति के खेल करके श्यामसुन्दर बड़े प्रसन्न होते थे। एक दिन वे गौओं के साथ वन में घूम रहे थे। घूमते-घूमते महात्मा भगवान केशव ने भाण्डीर नामक वटवृख देखा और उसकी छाया में बैठने का विचार किया। निष्पाप युधिष्ठिर! वहाँ श्रीकृष्ण समान अवस्था वाले दूसरे गोप बालकों के साथ बछड़े चराते थे, दिनभर खेल कूद करते थे और पहले दिव्य धाम में जिस प्रकार वे आनन्दित होते थे, उसी प्रकार वन में आनन्दपूर्वक दिन बिताते थे। भाण्डीरवन में निवास करने वाले बहुत से ग्वाले वहाँ क्रीडा करते हुए श्रीकृष्ण को अच्छे-अच्छे खिलौनों द्वारा प्रसन्न रखते थे। दूसरे प्रसन्नचित्त रहने वाले गोप, जिन्हें वन में घूमना प्रिय था, सदा श्रीकृष्ण की महिमा का गान किया करते थे।[1] जब वे गीत गाते, उस समय भगवान श्रीकृष्ण पत्तों के बाजों के बीच-बीच में वेणु, तुम्बी और वीणा बजाया करते थे। इस प्रकार विभिन्न लीलाओं द्वारा श्रीकृष्ण गोपबालकों के साथ खेलते थे। भतरनन्दन! उस समय बालक श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण भूतों के देखते-देखते लोकहित के अनेक कार्य किये। वृन्दावन में कदम्बवन के पास जो ह्रद (कुण्ड) था, उसमें प्रवेश करके उन्होंने कालियानाग के मस्तक पर नृत्यक्रीडा की थी। फिर सब लोगों के सामने ही कालिया नाग को अन्यत्र जाने का आदेश देकर वे बलदेवजी के साथ वन में इधर-उधर विचरण करने लगे।[2]

धेनुकासुर वध

राजन्! तालवन में धेनुक नामक भयंकर दैत्य निवास करता था, जो गधे का रूप धारण करके रहता था। उस समय वह बलदेवजी के हाथ से मारा गया। कुन्तीनन्दन! तदनन्तर किसी समय सुन्दर मुखवाले बलराम और श्रीकृष्ण अपने बड़े हुए गोधन को चराने के लिये वन में गये। वहाँ वन की शोभा निहारते हुए वे दोनों भाई घूमते, खेलते, गीत गाते और विभिन्न वृक्षों की खोज करते हुए बड़े प्रसन्न होते थे। शत्रुओं को संताप देनेवाले वे दोनो अजेय वीर वहाँ गौओं और बछड़ों को नाम ले-लेेकर बुलाते और लोक प्रचलित बालोचित क्रीडाएँ करते रहते थे। वे दोनों देववन्दित देवता थे तो भी मानवी दीक्षा ग्रहण करने के कारण मानव जाति के अनुरूप गणों वाली क्रीडाएँ करते हुए वन में विचरते थे।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 19
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 20

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