- महाभारत सभा पर्व के ‘दिग्विजय पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 26 के अनुसार अर्जुन द्वारा अनेक राजाओं तथा भगदत्त की पराजय का वर्णन इस प्रकार है[1]-
जनमेजय बोले- ब्रह्मन! दिग्विजय का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। अपने पूर्वजों के इस महान चरित्र को सुनते सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन! यद्यपि कुन्ती के चारों पुत्रों ने एक ही समय इन चारों दिशाओं की पृथ्वी पर विजय प्राप्त की थी, तो भी पहले तुम्हें अर्जुन का दिग्विजय वृत्तान्त सुनाऊँगा। महाबाहु धनंजय ने अत्यन्त दु:सह पराक्रम प्रकट किये बिना ही पहले पुलिन्द देश के भूमिपालों को अपने वश में किया। कुलिन्दों के साथ-साथ कालकूट और आनर्त देश के राजाओं को जीतकर सेना सहित राजा सुमण्डल को भी जीत लिया। राजन! तदनन्तर शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची अर्जुन ने सुमण्डल को साथी बना लिया और उनके साथ जाकर शाकलद्वीप तथा राजा प्रतिविन्ध्य पर विजय प्राप्त की। शाकलद्वीप तथा अन्य द्वीपों में जो राजा रहते थे, उनके साथ अर्जुन के सैनिकों का घमासान युद्ध हुआ।
भरत कुलभूषण जनमेजय! अर्जुन ने उन महान धनुर्धरों को भी जीत लिया औरउन सबको साथ लेकर प्राग्ज्योतिष पुर पर धावा किया। महाराज! प्राग्ज्योतिष पुर के प्रधान राजा भगदत्त थे। उनके साथ महात्मा अर्जुन का बड़ा भारी युद्ध हुआ। प्राग्ज्योतिष पुर के नरेश किरात, चीन तथा समुद्र के टापुओं में रहने वाले अन्य बहुतेरे योद्धाओं से घिरे हुए थे। राजा भगदत्त ने अर्जुन के साथ आठ दिनों तक युद्ध किया, तो भी उन्हें युद्ध से थकते न देख वे हँसते हुए बोले - ‘महाबाहु कौरवनन्दन! तुम इन्द्र के पुत्र और संग्राम में शोभ पाने वाले शूरवीर हो। तुममें ऐसा बल और पराक्रम उचित ही है। ‘मैं देवराज इन्द्र का मित्र हूँ और युद्ध में उनसे तनिक भी कम नहीं हूँ, बेटा! तो भी मैं संग्राम में तुम्हारे सामने खड़ा नहीं हो सकूँगा। ‘पाण्डुनन्दन! तुम्हारी इच्छा क्या है, बताओ? मैं तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ? वत्स! महाबाहो! तुम जो कहोगे, वही करूँगा।'
अर्जुन बोले - महाराज! धर्मज्ञ सत्यप्रतिज्ञ कुरुकल रत्न धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर बहुत दक्षिणा देकर राजसूय यज्ञ करने वाले हैं। मैं चाहता हूँ वे चक्रवर्ती सम्राट हों। आप उन्हें कर दीजिये। आप मेरे पिता के मित्र हैं और मुझ से भी प्रेम रखते हैं, अत: मैं आपको आज्ञा नहीं दे सकता। आप प्रेमभाव से ही उन्हें भेंट दीजिये। भगदत्त ने कहा - कुन्तीकुमार! मेरे लिये जैसे तुम हो वैसे राजा युधिष्ठिर हैं, मैं यह सब कुछ करूँगा। बोलो, तुम्हारे लिये और क्या करूँ?
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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