जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 59 के अनुसार जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद का वर्णन इस प्रकार है[1]-


युधिष्ठिर और शकुनि का संवाद

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर आदि कुन्‍तीकुमार उस सभा में पहुँचकर सब राजाओं से मिले। अवस्‍थाक्रम के अनुसार समस्‍त पूज्‍यनीय राजाओं का बारी-बारी से सम्‍मान करके सबसे मिलने-जुलने के पश्‍चात् वे यथायोग्‍य सुन्‍दर रमणीय गलीचों से युक्‍त विचित्र आसनों पर बैठे। उनके एवं सब नरेशों के बैठ जाने पर वहाँ सुबलकुमार शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा। शकुनि बोला—महाराज युधिष्ठिर! सभा में पासे फेंकने-वाला वस्‍त्र बिछा दिया गया है, सब आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब पासे फेंककर जूआ खेलने का अवसर मिलना चाहिये। युधिष्ठिर ने कहा—राजन्! जूआ तो एक प्रकार का छल है तथा पाप का कारण है! इसमें ने तो क्षत्रियोचित पराक्रम दिखाया जा सकता है और न इसकी कोई निश्चित नीति ही है। फिर तुम द्यूत की प्रशंसा क्‍यों करते हो। शकुने! जुआरियों का छल-कपट में ही –सम्‍मान होता है; सज्‍जन पुरुष वैसे सम्‍मान की प्रशंसा नहीं करते। अत: तुम क्रूर मनुष्‍य की भाँति अनुचित मार्ग से हमें जीतने की चेष्‍टा न करो। शकुनि बोला – जिस अंक पर पासा पड़ता है, उसे जो पहले ही समझ लेता है, जो शठता का प्रतीकार करना जानता है एवं पासे फेंकने आदि समस्‍त व्‍यापार में उत्‍साहपूर्वक लगा रहता है तथा जो परम बुद्धिमान पुरुष द्यूतक्रीडा विषयक सब बातों की जानकारी रखता है, वही जूए का असली खिलाड़ी है; वह द्यूतक्रीडा में दूसरों की सारी शठतापूर्ण चेष्‍टाओं को सह लेता है। कुन्‍तीनन्‍दन! यदि पासा विपरीत पड़ जाय तो हम खिलाडि़यों में से एक पक्ष को पराजित कर सकता है; अत: जय-पराजय दैवाधीन पासों के ही आश्रित है। उसी से पराजय-रूप दोष की प्राप्ति होती है। हारने की तो शंका हमें भी है, फिर भी हम खेलते हैं। अत: भूमिपाल! आप शंका न कीजिये, दाँव लगाइये, अब विलम्‍ब न कीजिये। युधिष्ठिर ने कहा—मुनिश्रेष्‍ठ असित-देवल ने, जो सदा इन लोक द्वारा में भ्रमण करते रहते हैं, ऐसा कहा है कि जुआरियों के साथ शठतापूर्वक जो जूआ खेला जाता है, पाप है। धर्मानुकूल विजय तो युद्ध में ही प्राप्‍त होती है; अत: क्षत्रियों के लिये युद्ध ही उत्तम है, जूआ खेलना नहीं। श्रेष्‍ठ पुरुष वाणी द्वारा किसी के प्रति अनुचित शब्‍द नहीं निकालते तथा कपटपूर्ण बर्ताव नहीं करते। कुटिलता और शठता से रहित युद्ध ही सत्‍पुरुषों व्रत है। शकुने! हम लोग जिस धन से अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों की रक्षा करने का ही प्रयत्‍न करते हैं, उसको तुम जूआ खेलकर हम लोगों से हड़पने की चेष्‍टा न करो। मैं धूर्ततापूर्ण बर्ताव के द्वारा सुख अथवा धन पाने की इच्‍छा नहीं करता; क्‍योंकि जुआरी के कार्य को विद्वान् पुरुष अच्‍छा नहीं समझते है।[1]

युधिष्ठिर का दृढ़ निर्णय

शकुनि बोला–युधष्ठिर! श्रोत्रिय विद्वान् दूसरे श्रोत्रिय विद्वनों के पास जब उन्‍हें जीतने के लिये जाता है, तब शठता से ही काम लेता है। विद्वान् अविद्वानों को शठता से ही पराजित करता है; परंतु इसे जनसाधारण शठता नहीं कहते।[1] धर्मराज! जो द्यूतविद्या में पूर्ण शिक्षित है, वह अशिक्षितों- पर शठता से ही विजय पाता है। विद्वान् पुरुष अविद्वानों को जो परास्‍त करता है, वह भी शठता ही है; किंतु लोग उसे शठता नहीं कहते। धर्मराज युधिष्ठिर! अस्‍त्रविद्या निपुण योद्धा अनाड़ी को एवं बलिष्‍ठ पुरुष दुर्बल को शठता से ही जीतना चाहता है। इस प्रकार सब कार्यो में विद्वान् पुरुष अविद्वानों को शठता से ही जीतते हैं; किंतु लोग उसे शठता नहीं कहते। इसी प्रकार आप यदि मेरे पास आकर यह मानते हैं कि आपके साथ शठता की जायगी एवं यदि आपको भय मालूम होता है तो इस जूए के खेल से निवृत्त हो जाइये। युधिष्ठिर ने कहा—राजन्! मैं बुलाने पर पीछे नहीं हटता, यह मेरा निश्चित व्रत है। दैव बलवान् है। मैं दैव के वश में हूँ। अच्‍छा तो यहाँ जिन लोगों का जमाव हुआ है, उनमें किसके साथ मुझे जुआ खेलना होगा ? मेरे मुकाबले में बैठकर दूसरा कौन पुरुष दाँव लगायेगा ? इसका निश्‍चय हो जाय, जो जूए का खेल प्रारम्‍भ हो। दुर्योधन बोला—महाराज! दाँव पर लगाने के लिये धन और रत्‍न तो मैं दूँगा; परंतु मेरी ओर से खेलेंगे ये मेरे मामा शकुनि। युधिष्ठिर ने कहा—दूसरे के लिये दूसरे का जूआ खेलना मुझे तो अनुचित ही प्रतीत होता है। विद्वन्! इस बात को समझ लो, फिर इच्‍छानुसार जूए का खेल प्रारम्‍भ हो।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-15
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 59 श्लोक 16-21

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