श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम की मगध यात्रा

महाभारत सभा पर्व के ‘जरासंध वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 20 के अनुसार श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम की मगध यात्रा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर से भीम को युद्ध के लिए प्रेरित करना

श्रीकृष्ण कहते हैं- धर्मराज! जरासंध के मुख्य सहायक हंस और डिम्भक यमुना जी में डूब मरे। कंस भी अपने सेवकों और सहायकों सहित काल के गाल में चला गया। अब जरासंध के नाश का यह उचित अवसर आ पहुँचा है। युद्ध में तो सम्पूर्ण देवता और असुर भी उसे जीत नहीं सकते, अतः मेरी समझ में यही आता है कि उसे बाहुयुद्ध के द्वारा जीतना चाहिये। मुझ में नीति है, भीमसेन में बल है और अर्जुन हम दोनों की रक्षा करने वाले हैं; उसी प्रकार हम तीनों मिलकर जरासंध के वध का काम पूरा कर लेंगे। जब हम तीनों एकान्त में राजा जरासंध से मिलेंगे, तब वह हम तीनों में से किसी एक के साथ द्वन्द्व युद्ध करना स्वीकार कर लेगा; इस में संदेह नहीं है। अपमान के भय से, बड़े योद्धा भीमसेन के साथ लड़ने के लोभ से तथा अपने बाहुबल से घमंड में चूर होने से जरासंध निश्चय ही भीमसेन के साथ युद्ध करने को उद्यत होगा। जैसे उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् के विनाश के लिये एक ही यमराज काफी हैं, उसी प्रकार महाबली महाबाहु भीमसेन जरासंध के वध के लिये पर्याप्त हैं। राजन्! यदि आप मेरे हृदय को जानते हैं और यदि आप का मुझ पर विश्वास है तो भीमसेन और अर्जुन को शीघ्र ही धरोहर के रूप में मुझे दे दीजिये।[1]

युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण की बात का समर्थन करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान् के ऐसा कहने पर वहाँ खड़े हुए भीमसेन और अर्जुन का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उस समय उन दोनों की ओर देखकर युधिष्ठिर ने इस प्रकार उत्तर दिया। युधिष्ठिर बोले- अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले शत्रुसूदन अच्युत! आप ऐसी बात न कहें, न कहें। आप सब पाण्डवों के स्वामी हैं, रक्षक हैं; हम सब लोग आपकी शरण में हैं। गोविन्द! आप जैसा कहते हैं, वह सब ठीक है। जिन की राज्य लक्ष्मी विमुख हो चुकी है, उनके सम्मुख आप आते ही नहीं हैं। आप की आज्ञा के अनुसार चलने मात्र से मैं यह मानता हूँ कि जरासंध मारा गया। समस्त राजा उसकी कैद से छुटकारा पा गये और मेरा राजसूय यज्ञ भी पूरा हो गया। जगन्नाथ! पुरुषोत्तम! आप सावधान होकर वही उपाय कीजिये , जिससे यह कार्य शीघ्र ही पूरा हो जाय। जैसे धर्म, काम और अर्थ से रहित रोगातुर मनुष्य अत्यन्त दुखी हो जीवन से हाथ धो बैठता है, उसी प्रकार मैं भी आप तीनों के बिना जीविन नहीं रह सकता। श्रीकृष्ण के बिना अर्जुन और पाण्डुपुत्र अर्जुन के बिना श्रीकृष्ण नहीं रह सकते। इन दोनों कृष्णनामधारी वीरों के लिये लोक में कोई भी अजेय नहीं है; ऐसा मेरा विश्वास है। यह बलवानों में श्रेष्ठ महायशस्वी कान्तिमान् वीर भीमसेन भी आप दोनों के साथ रहकर क्या नहीं कर सकता ? चतुर सेनापतियों द्वारा अच्छी तरह संचालित की हुई सेना उत्तम कार्य करती है, अन्यथा उस सेना को अंधी और जड कहते हैं; अतः नीतिनिपुण पुरुषों द्वारा ही सेना का संचालन होना चाहिये।[1] जिधर नीची जमीन होती है, उधर ही लोग जल बहाकर ले जाते हैं। जहाँ गड्ढा होता है, उधर ही धीवर भी जल बहाते हैं (इसी प्रकार आप लोग भी जैसे कार्य -साधन में सुविधा हो, वैसा ही करें)। इसीलिये हम नीति विधान के ज्ञाता लोक विख्यात महापुरुष श्रीगोविन्द की शरण लेकर कार्यसिद्धि के लिये प्रयत्न करते हैं। इसी प्रकार सब के लिये यह उचित है कि कार्य और प्रयोजन की सिद्धि के लिये सभी कार्यों में बुद्धि, नीति, बल, प्रयत्न और उपाय से युक्त श्रीकृष्ण को ही आगे रक्खे। यदुश्रेष्ठ! इसी प्रकार समस्त कार्यों की सिद्धि के लिये आप का आश्रय लेना परम आवश्‍यक है। अर्जुन आप श्रीकृष्ण का अनुसरण करें और भीमसेन अर्जुन का। नीति, विजय और बल तीनों मिलकर पराक्रम करें, तो उन्हें अवश्य सिद्धि प्राप्त होगी।[2]-

श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम का मगध जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर वे सब महातेजस्वी भाई- श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन मगधराज जरासंध से भिड़ने के लिये उसकी राजधानी की ओर चल दिये। उन्होंने तेजस्वी स्नातक ब्राह्मणों के से वस्त्र पहनकर उनके द्वारा अपने क्षत्रिय रूप को छिपाकर यात्रा की। उस समय हितैषी सुहृदों ने मनोहर वचनों द्वारा उन सब का अभिनन्दन किया। जरासंध के प्रति रोष के कारण वे प्रज्वलित से हो रहे थे। जाति भाइयों के उद्धार के लिये उनका महान् तेज प्रकट हुआ था। उस समय सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि के समान तेजस्वी शरीर वाले उन तीनों का स्वरूप अत्यन्त उद्भासित हो रहा था। एक ही कार्य के लिये उद्यत हुए और युद्ध में कभी पराजित न होने वाले उन दोनों (कृष्णों को अर्थात् नर-नारायण-रूप कृष्ण और अर्जुन) को भीमसेन को आगे लिये जाते देख युधिष्ठिर को यह निश्चय हो गया कि जरासंध अवश्य मारा जायगा। क्योंकि वे दोनों महात्मा निमेष-उन्मेष से लेकर महाप्रलय पर्यन्त समस्त कार्यों के नियन्ता तथा धर्म, काम और अर्थ साधन में लगे हुए लोगों को तत्सम्बन्धी कार्यों में लगाने वाले ईश्वर (नर-नारायण) हैं। वे तीनों कुरुदेश से प्रस्थित हो कुरुजांगल के बीच से होते हुए रमणीय पद्मसरोवर पर पहुँचे। फिर कालकूट पर्वत को लाँघकर गण्डकी, महाशोण, सदानीरा एवं एक पर्वत तक प्रदेश की सब नदियों को क्रमशः पार करते हुए आगे बढ़ते गये। इससे पहले मार्ग में उन्होंने रमणीय सरयू नदी पार करके पूवीं कोसल प्रदेश में भी पदार्षण किया था। कोसल पार करके बहुत-सी नदियों का अवलोकन करते हुए वे मिथिला में गये। गंगा और शोणभद्र को पार करके वे तीनों अच्युत वीर पूर्वाभिमुख होकर चलने लगे। उन्होंने कुश एवं चीर से ही अपने शरीर को ढक रक्खा था। जाते-जाते वे मगध क्षेत्र की सीमा में पहुँच गये। फिर सदा गोधन से भरे-पूरे, जल से परिपूर्ण तथा सुन्दर वृक्षों से सुशोभित गोरथ पर्वत पर पहुँचकर उन्होंने मगध की राजधानी को देखा।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 20 श्लोक 17-30

संबंधित लेख

महाभारत सभा पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सभाक्रिया पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार मयासुर द्वारा सभा भवन निर्माण | श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा | मयासुर का भीम-अर्जुन को गदा और शंख देना | मय द्वारा निर्मित सभा भवन में युधिष्ठिर का प्रवेश
लोकपाल सभाख्यान पर्व
नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देना | युधिष्ठिर की दिव्य सभाओं के विषय में जिज्ञासा | इन्द्र सभा का वर्णन | यमराज की सभा का वर्णन | वरुण की सभा का वर्णन | कुबेर की सभा का वर्णन | ब्रह्माजी की सभा का वर्णन | राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य
राजसूयारम्भ पर्व
युधिष्ठिर का राजसूयविषयक संकल्प | श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ की सम्मति | जरासंध के विषय में युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्ण की बातचीत | जरासंध पर जीत के विषय में युधिष्ठिर का उत्साहहीन होना | श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की बात का अनुमोदन | युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाना | जरा राक्षसी का अपना परिचय देना | चण्डकौशिक द्वारा जरासंध का भविष्य कथन
जरासंध वध पर्व
श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम की मगध यात्रा | श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा | श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद | जरासंध की युद्ध के लिए तैयारी | जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर का वर्णन | भीम और जरासंध का भीषण युद्ध | भीम द्वारा जरासंध का वध | जरासंध द्वारा बंदी राजाओं की मुक्ति
दिग्विजय पर्व
पाण्डवों की दिग्विजय के लिए यात्रा | अर्जुन द्वारा अनेक राजाओं तथा भगदत्त की पराजय | अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पाना | किम्पुरुष, हाटक, उत्तरकुरु पर अर्जुन की विजय | भीम का पूर्व दिशा में जीतने के लिए प्रस्थान | भीम का अनेक राजाओं से भारी धन-सम्पति जीतकर इन्द्रप्रस्थ लौटना | सहदेव द्वारा दक्षिण दिशा की विजय | नकुल द्वारा पश्चिम दिशा की विजय
राजसूय पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना | राजसूय यज्ञ में राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन | राजसूय यज्ञ का वर्णन
अर्घाभिहरण पर्व
राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम | भीष्म की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा | शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन | युधिष्ठिर का शिशुपाल को समझाना | भीष्म का शिशुपाल के आक्षेपों का उत्तर देना | भगवान नारायण की महिमा | भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ वध | वराह अवतार की संक्षिप्त कथा | नृसिंह अवतार की संक्षिप्त कथा | वामन अवतार की संक्षिप्त कथा | दत्तात्रेय अवतार की संक्षिप्त कथा | परशुराम अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीराम अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीकृष्ण अवतार की संक्षिप्त कथा | कल्कि अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीकृष्ण का प्राकट्य | कालिय-मर्दन एवं धेनुकासुर वध | अरिष्टासुर एवं कंस वध | श्रीकृष्ण और बलराम का विद्याभ्यास | श्रीकृष्ण का गुरु को दक्षिणा रूप में उनके पुत्र का जीवन देना | नरकासुर का सैनिकों सहित वध | श्रीकृष्ण का सोलह हजार कन्याओं को पत्नीरूप में स्वीकार करना | श्रीकृष्ण का इन्द्रलोक जाकर अदिति को कुण्डल देना | द्वारकापुरी का वर्णन | रुक्मिणी के महल का वर्णन | सत्यभामा सहित अन्य रानियों के महल का वर्णन | श्रीकृष्ण और बलराम का द्वारका में प्रवेश | श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर पर विजय | भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार | सहदेव की राजाओं को चुनौती
शिशुपाल वध पर्व
युधिष्ठिर को भीष्म का सान्त्वना देना | शिशुपाल द्वारा भीष्म की निन्दा | शिशुपाल की बातों पर भीम का क्रोध | भीष्म द्वारा शिशुपाल के जन्म का वृतांत्त का वर्णन | भीष्म की बातों से चिढ़े शिशुपाल का उन्हें फटकारना | श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल वध | राजसूय यज्ञ की समाप्ति | श्रीकृष्ण का स्वदेशगमन
द्यूत पर्व
व्यासजी की भविष्यवाणी से युधिष्ठिर की चिन्ता | दुर्योधन का मय निर्मित सभा भवन को देखना | युधिष्ठिर के वैभव को देखकर दुर्योधन का चिन्तित होना | पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने के लिए दुर्योधन-शकुनि की बातचीत | दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध | धृतराष्ट्र का विदुर को इन्द्रप्रस्थ भेजना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दुख और चिन्ता का कारण बताना | युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन | दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक का वर्णन | दुर्योधन को धृतराष्ट्र का समझाना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र को उकसाना | द्यूतक्रीडा के लिए सभा का निर्माण | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को बुलाने के लिए विदुर को आज्ञा देना | विदुर और धृतराष्ट्र की बातचीत | विदुर और युधिष्ठिर बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर आना | जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद | द्यूतक्रीडा का आरम्भ | जुए में शकुनि के छल से युधिष्ठिर की हार | धृतराष्ट्र को विदुर की चेतावनी | विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध | दुर्योधन का विदुर को फटकारना और विदुर का उसे चेतावनी देना | युधिष्ठिर का धन, राज्य, भाई, द्रौपदी सहित अपने को भी हारना | विदुर का दुर्योधन को फटकारना | दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाना | सभासदों से द्रौपदी का प्रश्न | भीम का क्रोध एवं अर्जुन को उन्हें शान्त करना | विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण द्वारा विरोध | द्रौपदी का चीरहरण | विदुर द्वारा प्रह्लाद का उदाहरण देकर सभासदों को विरोध के लिए प्रेरित करना | द्रौपदी का चेतावनी युक्त विलाप एवं भीष्म का वचन | दुर्योधन के छल-कपटयुक्त वचन और भीम का रोषपूर्ण उद्गार | कर्ण और दुर्योधन के वचन एवं भीम की प्रतिज्ञा | द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति | कौरवों को मारने को उद्यत हुए भीम को युधिष्ठिर का शान्त करना | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश
अनुद्यूत पर्व
दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पुन: द्युतक्रीडा के लिए पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध | गान्धारी की धृतराष्ट्र को चेतावनी किन्तु धृतराष्ट्र का अस्वीकार करना | धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन: जुआ खेलना और हारना | दु:शासन द्वारा पाण्डवों का उपहास | भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की भीषण प्रतिज्ञा | विदुर का पाण्डवों को धर्मपूर्वक रहने का उपदेश देना | द्रौपदी का कुन्ती से विदा लेना | कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होना | वनगमन के समय पाण्डवों की चेष्टा | प्रजाजनों की शोकातुरता के विषय में धृतराष्ट्र-विदुर का संवाद | शरणागत कौरवों को द्रोणाचार्य का आश्वासन | धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः