महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 47 के अनुसार युधिष्ठिर के वैभव को देखकर दुर्योधन के चिन्तित होने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
दुर्योधन का चिन्तित होना
पाण्डवों की राजलक्ष्मी से संतप्त हो उसी का चिन्तन करते हुए जाने वाले राजा दुर्योधन के मन में पापपूर्ण विचार का उदय हुआ। कुरुश्रेष्ठ! यह देखकर कि कुन्ती के पुत्रों का मन प्रसन्न है, भूमण्डल के सब नरेश उनके वश में हैं तथा बच्चों से लकर बूढ़ों तक सारा जगत उनका हितैषी है, इस प्रकार महात्मा पाण्डवों की महिमा अत्यन्त बढ़ी हुई देखकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन का रंग फीका पड़ गया। रास्ते में जाते समय वह नाना प्रकार के विचारों से चिन्तातुर था। वह अकेला ही परम बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर की अलौकिक सभा तथा अनुपम लक्ष्मी के विषय में सोच रहा था।[1] इस समय धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन उन्मत्त सा हो रहा था। वह शकुनि के बार बार पूछने पर भी उसे कोई उत्तर नही दे रहा था। उसे नाना प्रकार की चिन्ताओं से युक्त देख शकुनि ने पूछा- ‘दुर्योधन! तुम्हें कहाँ से दु:ख का कारण प्राप्त हो गया, जिससे तुम लंबी साँसे खींचते चल रहे हो।’[2]-
शकुनि और दुर्योधन का संवाद
दुर्योधन ने कहा- मामाजी! मैंने देखा है, श्वेत वाहन महात्मा अर्जुन ने अस्त्रों के प्रताप से जीती हुई यह सारी पृथ्वी युधिष्ठिर के वशमें हो गयी है। महातेजस्वी युधिष्ठिर का वह राजसूय यज्ञ उसी प्रकार सम्पन्न हुआ है, जैसे देवताओं में देवराज इन्द्र का यज्ञ पूर्ण हुआ था। यह सब देखकर मैं दिन रात ईर्ष्या से भरा ठीक उसी प्रकार जलता रहता हूँ, जैसे ग्रीष्म ऋतु में थोड़ा सा जल जल्दी सूख जाता है। और भी देखिये, यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को मार गिराया, परंतु वहाँ कोई भी वीर पुरुष उसका बदला लेने को तैयार नही हुआ। पाण्डव जनित आग से दग्ध होने वाले राजाओं ने वह अपराध क्षमा कर दिया। अन्यथा इतने बड़े अन्याय को कौन सह सकता है। वासुदेव श्रीकृष्ण ने जैसा महान अनुचित कर्म किया था, वह महामाना पाण्डवों के प्रताप से सफल हो गया। जैसे कर देने वाले व्यापारी वेश्य नाना प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर राजा की सेवा में उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार सब राजा अनेक प्रकार के उत्तम रत्न लेकर राजा युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित हुए थे। पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के समीप प्राप्त हुई उन प्रकाशमयी लक्ष्मी को देखकर मैं ईर्ष्यावश जल रहा हूँ। यद्यपि मेरी यह दुरवस्था उचित नहीं है। ऐसा निश्चय करके दुर्योधन चिन्ता की आग से दग्ध सा होता हुआ पुन: गान्धार राज शकुनि से बोला। मैं आग में प्रवेश कर जाऊँगा, विष खा लूँगा अथवा जल में डूब मरूँगा, अब मैं जीवित नहीं रह सकूँगा। संसार में कौन ऐसा शक्तिशाली पुरुष होगा, जो शत्रुओं की वृद्धि और अपनी हीन दशा होती देखकर भी चुपचाप सहन कर लेगा। मैं इस समय न तो स्त्री हूँ, न अस्त्र बल से सम्पन्न हूँ, न पुरुष हूँ और न नपुंसक ही हूँ, तो भी अपने शत्रुओं के पास आयी हुई वैसी उत्कृष्ट सम्पत्ति को देखकर भी चुपचाप सहन कर रहा हूँ? शत्रुओं के पास समस्त भूमण्डल का वह साम्राज्य, वैसी धन रत्नों से भरी सम्पदा और उनका वैसा उत्कृष्ट राजसूय यज्ञ देखकर मेरे जैसा कौन पुरुष चिन्तित न होगा? मैं अकेला उस राजलक्ष्मी को हड़प लेने में असमर्थ हूँ और अपने पास योग्य सहायक नहीं देखता हूँ, इसीलिये मृत्यु का चिन्तन करता हूँ। कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के पास उस अक्ष्य विशुद्ध लक्ष्मी का संचय देख मैं दैव को ही प्रबल मानता हूँ, पुरुषार्थ तो निरर्थक जान पड़ता है। सुबलपुत्र! मैंने पहले धर्मराज युधिष्ठिर को नष्ष्ट कर देने का प्रयत्न किया था, किंतु उन सारे संकटों को लाँघ करके वे जल में कमल की भाँति उत्तरोत्तर बढ़ते गये। इसी से मैं दैव को उत्तम मानता हूँ और पुरुषार्थ को निरर्थक, क्योंकि हम धृतराष्ट्र पुत्र हानि उठा रहे हैं और ये कुन्ती के पुत्र प्रतिदिन उन्नति करते जा रहे हैं। मैं उस राजलक्ष्मी को, उस दिव्य सभा को तथा रक्षकों द्वारा किये गये अपने उपहास को देखकर निरन्तर संतप्त हो रहा हूँ, मानों आग में जलता होऊँ। मामाजी! अब मुझे (मरने के लिये) आज्ञा दिजिये, क्योंकि मैं बहत दुखी हूँ और ईर्ष्या की आग में जल रहा हूँ। महाराज धृतराष्ट्र को मेरी यह अवस्था सूचित कर दीजियेगा।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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