नृसिंह अवतार की संक्षिप्त कथा

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार नृसिंह अवतार की संक्षिप्त कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-


हिरण्यकशिपु का तपस्या करना

अब नृसिंहावतार का वर्णन सुनो, जिसमें नरसिंह रूप धारण कर के भगवान ने हिरण्यकशिपु नामक दैत्य का वध किया था। राजन्! प्राचीन काल में देतवओं का शत्रु हिरण्यकशिपु समस्त दैत्यों का राजा था। वह बलावान् तो था ही, उसे अपने बल का घमंड भी बहुत था। वह तीनों लोकों के लिये कण्टक रूप हो रहा था। पराक्रमी हिरण्यकश्पिु धीर और बलवान् था। दैत्यकुल का आदिपुरुष वही था। राजन्! उसने वन में जाकर बड़ी भारी तपस्या की। साढ़े ग्यारह हजार वर्षों तक पूर्वोक्त तपस्या के हेतु भूत जप और उपवास में संलग्न रहने से वह ठूँठे काठ के समान अविचल और दृढ़तापूर्वक मौनव्रत का पालन करने वाला हो गया।[1]

ब्रह्मा जी का हिरण्यकशिपु को वर देना

निष्पाप नरेश! उसके इतन्दियसंयम, मनोनिग्रह, ब्रह्मचर्य, तपस्या तथा शौच संतोषादि नियमों के पालन से ब्रह्माजी के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। भूपाल! तदनन्तर स्वयम्भू भगवान ब्रह्मा हंस जुते हुए सूर्य के समान तेजस्वी विमान द्वारा स्वयं वहाँ पधारे। उनके साथ आदित्य, वसु, साध्य, मरुद्रण, देवगतण, रुद्रगण, विश्वेदेव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, दिशा, विदिशा, नदी, समुद्र, नक्षत्र, मुहूर्त, अन्यान्य आकाशचारी ग्रह, तपस्वी देवर्षि, सिद्ध, सप्तर्षि, पुण्यात्मा राजर्षि, गन्धर्व तथा अप्सराएँ भी थीं। ब्रह्माजी ने कहा- उत्तम व्रत का पालन करने वाले दैत्यराज! तुम मेरे भक्त हो। तुम्हारी इस तपस्या से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा भला हो। तुम कोई वर माँगों और मनोवच्छित वस्तु प्राप्त करो। हिरण्यकशिपु बोला- सुरश्रेष्ठ! मुझे देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच- कोई भी न मार सके। लोकपितामह! तपस्वी ऋषि-महर्षि कुपित होकर मुझे शाप भी न देें यही वर मैंने माँगा है। न शस्त्र से, न अस्त्र से, न पर्वत से न वृृक्ष से, न सूखे से, न गीले से और न दूसरे ही किसी आयुध से मेरा वध हो। पितामह! न आकाश में, न पृथ्वी पर, न रात में, न दिन में तथा न बाहर और भीतर ही मेरा वध हो सके। पशु या मृग, पक्षी अथवा सरीसृप (सर्प-बिच्छू) आदि से भी मेरी मृत्यु न हो। देवदेव! यदि आप वर दे रहे हैं तो मैं इन्हीं वरो को लेना चाहता हूँ। ब्रह्माजी ने कहा- तात! ये दिव्य और अद्भुत वर मैंने तुम्हें दे दिये। वत्स! इसमें संशय नहीं कि सम्पूर्ण कामनाओं सहित इन मनोवान्छित वरों को तुम अवश्य प्राप्त कर लोगे। भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर भगवान ब्रह्मा आकाश मार्ग से चले गये और ब्रह्मलोक मेज जाकर ब्रह्मर्षिगणों से सेवित होकर अत्यन्त शोभा पाने लगे। तदनन्तर देवता, नाग, गन्धर्व ओर मुनि उस वरदान का समाचार सुनकर ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए।[1]

देवताओं का चिन्तित होना

देवता बोले- इस वर के प्रभाव से वह असुर हम लोगों को बहुत कष्ट देगा, अत: आप प्रसन्न होइये ओर उसके वध का कोई उपाय सोचिये। क्योंकि आप ही सम्पूर्ण भूतों के आदि स्रष्टा, स्वयम्भू, सर्वव्यापी, हव्य-कव्य से निर्माता तथा अव्यक्त प्रकृति और ध्रुवस्वरूप हैं। भीष्म कहते हैं- युधिष्ठिर देवताओं का यह लोकहितकारी वचन सुनकर दिव्यशक्तिसम्पन्न भगवान प्रजापति ने उन सब देवगणों से इस प्रकार कहा। ब्रह्माजी ने कहा- देवताओं! उस असुर को अपनी तपस्या का फल अवश्य प्राप्त होगा। फल भोग के द्वारा जब तपस्या की समाप्ति हो जायगी, तब भगवान विष्णु स्वयं ही उसका वध करेंगे।[2]

हिरण्यकिशपु का आंतक

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ब्रह्माजी के द्वारा इस प्रकार उसके वध की बात सुनकर सब देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने दिव्य धाम को चले गये। दैत्य हिरण्यकशिपु ब्रह्माजी का वर पाते ही समस्त प्रजा को कष्ट पहुँचाने लगा। वरदान से उसका घमण्ड बहुत बढ़ गया था। वह दैत्यों का राजा होकर राज्य भोगने लगा। झुड के झुंड दैत्य उसे घेरे रहते थे। उसने सातों द्वीपों और अनेक लोक कलोकान्तरों को बलपूर्वक अपने वश में कर लिया। उस महान् असुर ने तीनों लोकों में रहने वाले समस्त देवताओं को जीतकर सम्पूर्ण दिव्य लोकों और वहाँ के दिव्य भोगों पर अधिकार प्राप्त कर लिया। इस प्रकार तीनों लोगों को अपनी अधीन करके वह दैत्य स्वर्ग लोक में निवा करने लगा। वरदान के मद से उन्मत्त हो दानव हिरण्यकशिपु देवलोक का निवासी बन बैठा। तदनन्तर वह महान असुर अन्य समस्त लोकों को जीत कर यह सोचने लगा कि मैं ही इन्द्र हो जाऊँ, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, सूर्य, जल, आकाश, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, क्रोध, काम, वरुण, वसुगण, अर्यमा, धन देने वाले धनाध्यक्ष, यक्ष और किम्पुरुषों का स्वामी- ये सब मैं ही हो जाऊँ। ऐसा सोचकर उसने स्वयं ही बलपूर्वक उन-उन पदों पर अधिकार जमा लिया। उनके स्थान ग्रहण करके उन सबके कार्य वह स्वयं देखने लगा। उत्तम देवषिगण श्रेष्ठ यज्ञों द्वारा जिन देवताओं का यजन करते थे, उन सबके स्थान पर वह स्वयं ही यज्ञभाग का अधिकारी बन बैठा। नरक में पड़े हुए सब जीवों को वहाँ से निकालकर उसने स्वर्ग का निवासी बना दिया। बलवान दैत्यराज ने ये सब कार्य करके मुनियों के आश्रमों पर धावा किया और कठोर व्रत का पालन करने वाले सत्यधर्म परायण एवं जितेन्द्रिय महाभाग मुनियों को सताना आरम्भ किया। उसने दैत्यों को यज्ञ का अधिकारी बनाया और देवताओं को उस किधकार से वन्चित कर दिया। जहाँ-जहाँ देवता जाते थे, वहाँ-वहाँ वह उनका पीछा करता था। देवताओं के सारे स्थान हड़पकर वह स्वयं ही त्रिलोकी के राज्य का पालन करने लगा। उस दुरात्मा के राज्य करते पाँच करोड़ इकसठ लाख साठ हजार वर्ष व्यतीत हो गये। इतने वर्षो तक दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने दिव्य भोगों और ऐश्वर्य का उपभोग किया।[2]

देवताओं का अत्याचार से पिड़ित हो ब्रह्माजी के पास जाना

महाबली दैत्यराज हिरण्यकशिपु के द्वारा अत्यन्त पीड़ित हो इन्द्र आदि सब देवता ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्माजी के पास पहुँचकर खेदग्रस्त हो हाथ जोड़कर बोले। देवताओं ने कहा- भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी भगवान पितामह! हम यहाँ आपकी शरण में आये हैं। आप हमारी रक्षा कीजिये। अब हमें उस दैतय से दिन रात घोर भय की प्राप्ति हो रही है। भगवन! आप सम्पूर्ण भूतों के आदिस्रष्टा, स्वयम्भू, सर्वव्यापी, हव्य कव्यों के निर्माता, अव्यक्त प्रकृति एवं नितय स्वरूप हैं।[2]

देवताओं का भगवान नारायण से सहायता माँगना

ब्रह्माजी बोले- देवताओ! सुनो, ऐसी विपतित को समझना मेरे लिये भी अत्यनत कठिन है। अन्तर्यामी भगवान नारायण ही हमारी सहायता कर सकते हैं। वे विश्वरूप, महातेजस्वी, अव्यक्तस्वरूप, सर्वव्यापी, अविनाशी तथा सम्पूर्ण भूतों के लिये अचिन्त्य हैं। संकट काल में मेरे और तुम्होरे वे ही परम गति हैं। भगवान नारायण अव्यक्त से परे हैं और मेरा आविर्भाव अव्यक्त से हुआ है। मुझ से समस्त प्रजा सम्पूर्ण लोक तथा देवता और असुर भी उत्पन्न हुए हैं। देवताओं! जैसे मैं तुम लोगों का जनक हूँ, उसी प्रकार भगवान नारायण मेेरे जनक हैं। मैं सबका पितामह हूँ और वे भगवान विष्णु प्रपितामह हैं। देवताओं! इस हिरण्यकशिपु नामक दैत्य का वे विष्णु ही संहार करेंगे। उनके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है, अत: सब लोग उन्हीं की शरण में जाओ, विलम्ब न करो। भीष्म कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! पितामह ब्रह्मा का यह वचन सुनकर सब देवता उनके साथ ही क्षीर समुद्र के तटपर गये। आदित्य, मरुद्रण, साध्य, विश्वेेदेव, वसु, रुद्र, महर्षि, सुन्दर रूप वाले अश्विनी कुमार तथा अन्यान्य जो दिव्य योनि के पुरुष हैं, वे सब अर्थात अपने गणों सहित समस्त देवता चतुर्मुख ब्रह्माजी को आगे करके श्वेतद्वीप में उपस्थित हुए। क्षीरसमुद्र के तट पर पहुँचकर सब देवता अनन्त नामक शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले अनन्त एवं उद्दीप्त तेज से प्रकाशमान उन शरणागत वत्सल सनातन देवता श्रीविष्णु के सम्मुख उपस्थित हुए, जो सबके सनातन परम गति हैं। वे प्रभु देवस्वरूप, वेदमय, यज्ञरूप, ब्राह्मण को देवता मानने वाले, महान् बल और पराक्रम के आश्रय, भूत, वर्तमान और भविष्य रूप, सर्वसमर्थ, विश्ववन्दित, सर्वव्यापी, दिव्य शक्तिसम्पन्न तथा शरणागतक रक्षक हैं। वे सब देवता उन्हीं भगवान नारायण की शरण में गये। देवता बोले- देवेश्वर! आज आप हिरण्यकशिपु का वध करके हमारी रक्षा कीजिये। सुरश्रेष्ठ! आप ही हमारी और ब्रह्मा आदि के भी धारण पोषण करने वाले परमेश्वर हैं। खिले हुए कमल दल के समान नेत्रों वाले नारायण! आप शत्रुपक्ष को भय प्रदान करने वाले हैं। प्रभो! आज आप दैत्यों का विनाश करने के लिये उद्यत हो हमारे शरणदाता होइये।[3]

भगवान द्वारा देवताओं को सांत्वना देना

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! देवताओं की यह बात सुनकर पवित्र कीर्ति वाले भगवान विष्णु ने उस समय सम्पूर्ण भूतों से अद्दृश्य रहकर बोलना आरम्भ किया। श्रीभगवान बोले- देवताओं! भय छोड़ दो। मैं तुम्हें अभय देता हूँ। देवगण! तुम लोग अविलम्ब स्वर्गलोक में जाओं और पहले की ही भाँति वहाँ निर्भय होकर रहो। मैं वरदान पाकर घमंड में भरे हुए दानवराज हिरण्यकशिपु को, जो देवेश्वरों के लिये भी अवध्य हो रहा है, सेव को सहित अभी मार डालता हूँ। ब्रह्माजी ने कहा- भूत, भविष्य, और वर्तमान के स्वामी नारायण! ये देवता बहुत दुखी हो गये हैं, अत: आप दैत्यराज हिरण्यकशिपु को शीघ्र मार डालिये। उसकी मृत्यु का समय आ गया है, इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये। श्रीभगवान बोले- ब्रह्मा तथा देवताओं! मैं शीघ्र ही उस दैत्य का नाश करूँगा, अत: तुम सब लोग अपने-अपने दिव्यलोक में जाओ। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर भगवान विष्णु ने देवेश्वरों को विदा करके आधा शरीर मनुष्य का और आधा सिंह का सा बनाकर नरसिंह विग्रह धारण करके एक हाथ से दूसरे हाथ को रगड़ते हुए बड़ा भयंकर रूप बना लिया। वे महातेजस्वी नरसिंह मुँह बाये हुए काल के समान जान पड़ते थे।[3]

भगवान का नृसिंह रूप में हिरण्यकशिपु के पास जाना

राजन्! तदनन्तर भगवान विष्णु हिरण्यकशिपु के पास गये। नृसिंहरूप धारी महाबली भगवान श्रीहरि को आया देख दैत्यों ने कुपित होकर उन पर अस्त्र शस्त्रों की वर्षा आरम्भ की। उनके द्वारा चलाये हुए सभी शस्त्रों को भगवान खा गये, साथ ही उन्होंने उस युद्ध में कई हजार दैत्यों का संहार का डाला। क्रोध में भरे हुए उन सभी महाबलवान दैत्येश्वारों का विनाश करके अत्यन्त कुपित हो भगवान ने बलोन्मत्त दैत्यराज हिरण्यकशिपु पर धावा किया। भगवान नृसिंह की अंगकान्ति मेघों की घटा के समान श्याम थी। वे मेघों की गम्भीर गर्जना के समान दहाड़ रहे थे। उनका उद्दीप्त तेज भी मेघों के ही समान शोभ पाता था और वे मेघों के ही समान महान् वेगशाली थे।[4]

हिरण्यकशिपु का वध

भगवान नृसिंह को आया देख देवताओं से द्वेष रखने वाला दुष्ट दैत्य हिरण्यकशिपु उनकी ओर दौड़ा। कुपित सिंह के समान पराक्रमी उस अत्यन्त बलशाली, दर्पयुक्त एवं दैत्यगणों से सुरक्षित दैत्य को सामने आया देख महातेजस्वी भगवान नृसिंह ने नखों के तीखे अग्रभागों के द्वारा उस दैत्य के साथ घोर युद्ध किया। फिर संध्याकाल आने पर बड़ी उतावली के साथ उसे पकड़कर वे राजभवनकी देहली पर बैठ गये। तदनन्तर उन्होंने पअनी जाँघों पर दैत्यराज को रखकर नखों से उसका वक्ष:स्थल विदीर्ण कर डाला। सुरश्रेष्ठ श्रीहरि ने वरदान से घमंड में भरे हुए महाबली महापराक्रमी दैत्यराज को बड़े वेग से मार डाला। इस प्रकार हिरण्यकशिपु तथा उसके अनुयायी सब दैत्यों का संहार करके महातेस्वी भगवान श्रीहरि ने देवताओं तथा प्रजाजनों का हितसाधर किया और इस पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करके वे बड़े प्रसन्न हुए। पाण्डुनन्दन! यह मैंने तुम्हें संक्षेप से नृसिंहावतार की कथा सुनायी है।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 7
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 8
  3. 3.0 3.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 9
  4. 4.0 4.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 10

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