श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद

महाभारत सभा पर्व के ‘जरासंध वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 21 के अनुसार श्रीकृष्ण और जरासंध के संवाद का वर्णन इस प्रकार है[1]-

जरासंध का उनकों ब्राह्मण रूप में न देखकर उनकी निन्दा करना

उन तीनों को अपूर्व वेष में देखकर नृपश्रेष्ठ जरासंध को बड़ा विस्मय हुआ। वह उनके पास गया। भरतवंश शिरामणे! शत्रुओं का नाश करने वाले वे सभी नरश्रेष्ठ राजा जरासंध को देखते ही इस प्रकार बोले - ‘महाराज! आपका कल्याण हो।‘[1] जनमेजय! ऐसा कहकर वे तीनों खडे़ हो गये तथा कभी राजा जरासंध को और कभी आपस में एक दूसरे को देखने लगे। राजेन्द्र! ब्राह्मणों के छद्मवेष में छिपे हुए उन पाण्डव तथा यादव वीरों को लक्ष्य करके जरासंध ने कहा - ‘आप लोग बैठ जायँ’। फिर वे सभी बैठ गये। वे तीनों पुरुष सिंह महान् यज्ञ में प्रज्वलित तीन अग्नियों की भाँति अपनी अपूर्व शोभा से उद्भासित हो रहे थे। कुरुनन्दन! उस समय सत्यप्रतिज्ञ राजा जरासंध ने वेषग्रहण के विपरीत आचरण वाले उन तीनों की निन्दा करते हुए कहा - ‘ब्राह्मणों! इस मानव जगत् में सर्वत्र प्रसिद्ध है कि स्नातक व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण समावर्तन आदि विशेष निमित्त के बिना माला और चन्दन नहीं धारण करते। मुझे भी अच्छी तरह मालूम है। आप लोग कौन है ? आप के गले में फूलों की माला है और भुजाओं में धनुष की प्रत्यञ्चा की रगड़ का चिह्न स्पष्ट दिखायी देता है। ‘आप लोग क्षत्रियोचित तेज धारण करते हैं, परंतु ब्राह्मण होने का परिचय दे रहें है। इस प्रकार भाँति-भाँति के रंगीन कपड़े पहने और अकारण माला तथा चन्दन लगाये हुए आप कौन हैं ? सच बताइये। राजाओं में सत्य की ही शोभा होती है। ‘चैत्यक पर्वत के शिखर को तोड़कर राजा का अपराध करके भी उससे भयभीत न हो छद्मवेष धारण किये द्वार के बिना ही इस नगर में जो आप लोग घुस आये हैं, इसका क्या कारण हैं ? ‘बताइये, ब्राह्मण के तो प्रायः वचन में ही वीरता होती है, उसकी क्रिया में नहीं। आप लोगों ने जो यह पर्वतशिखर तोड़ने का काम किया है, वह आपके वर्ण तथा वेष के सर्वथा विपरीत है, बताइये आपने आज क्या सोच रक्खा है ?[1]

जरासंध का श्रीकृष्ण से रुष्ट होने का कारण पूछना

‘इस प्रकार मेरे यहाँ उपस्थित हो मेरे द्वारा विधिर्पूवक अर्पित की हुई इस पूजा को आप लोग ग्रहण क्यों नहीं करते हैं ? फिर मेरे यहाँ आने का प्रयोजन ही क्या है ?’ जरासंध के ऐसा कहने पर बोलने में चतुर महामना श्रीकृष्ण स्निग्ध एवं गम्भीर वाणी में इस प्रकार बोले

श्रीकृष्ण का जरासंध को समझाना

श्रीकृष्ण ने कहा - राजन्! तुम हमें (वेष के अनुसार) स्नातक ब्राह्मण समझ सकते हो। वैसे तो स्नातक व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों के लोग होते हैं। इन स्नातकों में कुछ विशेष नियम का पालन करने वाले होते हैं और कुछ साधारण। विशेष नियम का पालन करने वाला क्षत्रिय सदा लक्ष्मी को प्राप्त करता है। जो पुष्प् धारण करने वाले हैं, उनमें लक्ष्मी का निवास ध्रुव है, इसीलिये हम लोग पुष्प मालाधारी हैं। क्षत्रिय का बल और पराक्रम उसकी भुजाओं में होता है, वह बोलने में वैसा वीर नहीं होता। बृहद्रथनन्दन! इसीलिये क्षत्रिय का वचन धृष्टतारहित (विनययुक्त) बताया गया है। विधाता ने क्षत्रियों का अपना बल उनकी भुजाओं में ही भर दिया है। राजन्! यदि आज उसे देखना चाहते हो, तो निश्चय ही देख लोगे। धीर मनुष्य शत्रु के घर में बिना दरवाजे के और मित्र के घर में दरवाजे से जाते हैं। शत्रु और मित्र के लिये ये धर्मतः द्वार बतलाये गये हैं। हम अपने कार्य से तुम्हारे घर आये हैं; अतः शत्रु से पूजा नहीं ग्रहण कर सकते। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। यह हमारा सनातन व्रत है।[2]

जरासंध का वैर का कारण पूछना

जरासंध बोला- ब्राह्मणो! मुझे याद नहीं आता कि कब मैंने आप लोगों के साथ वैर किया है ? बहुत सोचने पर भी मुझे आप के प्रति अपने द्वारा किया हुआ अपराध नहीं दिखायी देता। विप्रगण! जब मुझ से अपराध ही नहीं हुआ है, तब मुझ निरपराध को आप लोग शत्रु कैसे मान रहे हैं ? यह बताइये। क्या यही साधु पुरुषों का बर्ताव है ? किसी के धर्म (और अर्थ) में बाधा डालने से अवश्य ही मन को बड़ा संताप होता है। जो धर्मज्ञ महारथी क्षत्रिय लोक में धर्म के विपरीत आचरण करता हुआ किसी निरपराध व्यक्ति पर दूसरों के धन और धर्म के नाश का दोष लगाता है, वह कष्टमयी गति को प्राप्त होता है और अपने को कल्याण से भी वंचित कर लेता है; इस में संशय नहीं है। सत्कर्म करने वाले क्षत्रियों के लिये तीनों लोकों में क्षत्रिय धर्म ही श्रेष्ठ है। धर्मज्ञ पुरुष क्षत्रिय के लिये अन्य धर्म की प्रशंसा नहीं करते। मैं अपने मन को वश में रखकर सदा स्वधर्म (क्षत्रिय धर्म ) में स्थित रहता हूँ। प्रजाओं का भी कोई अपराध नहीं करता, ऐसी दशा में भी आप लोग प्रमाद से ही मुझे शत्रु या अपराधी बता रहे हैं।[3]-

श्रीकृष्ण द्वारा जरासंध को उसका अपराध बताना

श्रीकृष्ण ने कहा- महाबाहो! समूचे कुल में कोई एक ही पुरुष कुल का भार सँभालता है। उस कुल के सभी लोगों की रक्षा आदि का कार्य सम्पन्न करता है। जो वैसे महापुरुष हैं, उन्हीं की आज्ञा से हम लोग आज तुम्हें दण्ड देने को उद्यत हुए हैं। राजन्! तुम ने भूलोक निवासी क्षत्रियों को कैद कर लिया है। ऐसे क्रूर अपराध का आयोजन करके भी तुम अपने को निरपराध कैसे मानते हो ? नृपश्रेष्ठ! एक राजा दूसरे श्रेष्ठ राजाओें की हत्या कैसे कर सकता है ? तुम राजाओं को कैद करके उन्हें रुद्र देवता की भेंट चढ़ाना चाहते हो ? बृहद्रथ कुमार! तुम्हारे द्वारा किया हुआ यह पाप हम सब लोगों पर लागू होगा; क्योंकि हम धर्म की रक्षा करने में समर्थ और धर्म का पालन करने वाले हैं। किसी देवता की पूजा के लिये मनुष्यों का बध कभी नहीं देखा गया। फिर तुम कल्याणकारी देवता भगवान् शिव की पूजा मनुष्यों की हिंसा द्वारा कैसे करना चाहते हो ? जरासंध! तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है, तुम भी उसी वर्ण के हो, जिस वर्ण के वे राजा लोग हैं। क्या तुम अपने ही वर्ण के लोगों को पशुनाम देकर उनकी हत्या करोगे ? तुम्हारे जैसा क्रूर दूसरा कौन है ? जो जिस-जिस अवस्था में जो-जो कर्म करता है, वह उसी-उसी अवस्था में उसके फल को प्राप्त करता है। तुम अपने ही जाति-भाइयों के हत्यारे हो और हम लोग संकट में पड़े हुए दीन-दुखियों की रक्षा करने वाले हैं; अतः सजातीय बन्धुओं की वृद्धि के उद्देश्य से हम तुम्हारा वध करने के लिये यहाँ आये हैं। राजन्! तुम जो यह मान बैठे हो कि इस जगत् के क्षत्रियों में मेरे समान दूसरा कोई नहीं है, यह तुम्हारी बुद्धि का बहुत बड़ा भ्रम है।[3]

श्रीकृष्ण द्वारा जरासंध को युद्ध के लिये ललकारना

नरेश्वर! कौन ऐसा स्वाभिवानी क्षत्रिय होगा जो अपने अभिजन को (जातीय बन्धुओं की रक्षा परम धर्म है, इस बात को) जानते हुए भी युद्ध करके अनुपम एवं अक्षय स्वर्ग लोक में जाना नहीं चाहेगा ? नरश्रेष्ठ! स्वर्ग प्राप्ति का ही उद्देश्य रखकर रणयज्ञ की दीक्षा लेने वाले क्षत्रिय अपने अभीष्ट लोकों पर विजय पाते हैं, यह बात तुम्हें भलीभाँति जाननी चाहिये। वेदाध्ययन स्वर्ग प्राप्ति का कारण है, परोपकार रूप महान् यश भी स्वर्ग का हेतु है, तपस्या को भी स्वर्ग लोक इन तीनों की अपेक्षा युद्ध में मृत्यु का वरण करना ही स्वर्ग प्राप्ति का अमोघ साधन है। क्षत्रिय का यह युद्ध में मरण इन्द्र का वैजयन्त नामक प्रासाद (राजमहल) है। यह सदा सभी गुणों से परिपूर्ण है। इसी युद्ध के द्वारा शतक्रतु इन्द्र असुरों को परास्त करके सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करते हैं। हमारे साथ जो तुम्हारा युद्ध होने वाला है, वह तुम्हारे लिये जैसा स्वर्गलोक की प्राप्ति का साधक हो सकता है, वैसा युद्ध और किस को सुलभ है ? मेरे पास बहुत बड़ी सेना एवं शक्ति है, इस घमंड में आकर मगधदेश की अगणित सेनाओं द्वारा तुम दूसरों का अपमान न करो। राजन्! प्रत्येक मनुष्य में बल एवं पराक्रम होता है। महाराज! किसी में तुम्हारे समान तेज है तो किसी में तुम से अधिक भी है। भूपाल! जब तक इस बात को नहीं जानते थे, तभी तक तुम्हारा घमंड बढ़ रहा था। अब तुम्हारा यह अभिमान हम लोगों के लिये असह्य हो उठा है, इसलिये मैं तुम्हें यह सलाह देता हूँ। मगधराज! तुम अपने समान वीरों के साथ अभिमान और घमंड करना छोड़ दो। इस घमंड को रखकर अपने पुत्र, मन्त्री और सेना के साथ यमलोक में जाने की तैयारी न करो। दम्भोद्भव, कार्तवीर्य अर्जुन, उत्तर तथा बृहद्रथ - ये सभी नरेश अपने से बड़ो का अपमान करके अपनी सेनासहित नष्ट हो गये। तुम से युद्ध की इच्छा रखने वाले हम लोग अवश्य ही ब्राह्मण नहीं हैं। मैं वसुदेव पुत्र हृषीकेश हूँ और ये दोनों पाण्डु पुत्र वीरवर भीमसेन और अजुर्न हैं। मैं इन दोनों के मामा का पुत्र और तुम्हारा प्रसिद्ध शत्रु श्रीकृष्ण हूँ। मुझे अच्छी तरह पहचान लो। मगधनरेश! हम तुम्हें युद्ध के लिये ललकारते हैं। तुम डटकर युद्ध करो। तुम या तो समस्त राजाओं को छोड़ दो अथवा यमलोक की राह लो।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 21 श्लोक 29-46
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 21 श्लोक 47-54
  3. 3.0 3.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 22 भाग-1
  4. महाभारत सभा पर्व अध्याय 22 भाग-2

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